Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 447
________________ ३८०] तिलोयपण्णत्ती [ ४. १८१३ उच्छेहो बे कोसा वेदीए पणसयाणि दंडाणं। वित्थारो भुवणत्तयविम्हयसंतावजणणीए॥१८१३ को २। दं ५००। तीए मज्झिमभागे पडू णामेण दिव्ववणसंडा । सेलस्स चलियाए समंतदो दिण्णपरिवेढा ॥ १८१४ कप्पूररुक्खपउरा तमालहितालतालकयलिजुदा । लवलीलवंगवलिदा दाडिमपणसहि संछपणा ॥१८१५ सयवत्तिमल्लिसालाचंपयणारंगमाहुलिंगेहिं । पुण्णायणायकुजयअसोयपहुदीहिं कमणिजा ॥ १८१६ कोइलकलयलभरिदा मोराणं विविहकीडणेहिं जुदा । सुरकरिसडाइण्णा खेचरसुरमिहुणकीडयरा ॥ १८१७ पंडुवणे उत्तरए एदाण दिसाए होदि पंडुसिला । तह वणवेदीजुत्ता अटुंदुसरिच्छसंठाणा ॥ १८१८ पुव्वावरेसु जोयणसददीहा दक्खिणुत्तरस्ससं। पण्णासा बहुमज्झे कमहाणी तीए उभयपासेसुं॥ १८१९ जोयणअट्ठच्छेहो सम्वत्थं होदि कणयमइया सा। समवट्टा उवरिम्मि य वणवेदीपहुदिसंजुत्ता ॥ १८२० चउजायणउच्छेहं पणसयदीहं तदद्धवित्थारं । सग्गायणिआइरिया एवं भासंति पंडुसिल ॥ १८२१ ४।५०० । २५० । भुवनत्रयको विस्मय और संताप (?) उत्पन्न करनेवाली इस वेदीकी उंचाई दो कोस और विस्तार पांचसौ धनुषप्रमाण है ।। १८१३ ॥ को. २ । दं. ५०० ।। उस वेदीके मध्यभागमें पर्वतकी चूलिकाको चारों ओरसे वेष्टित किये हुए पाण्डु नामक वनखंड है ॥ १८१४ ॥ ये वनखंड प्रचुर कर्पूर वृक्षोंसे संयुक्त, तमाल, हिंताल, ताल और कदली वृक्षोंसे युक्त, लवली और लवंगसे वलित, दाडिम और पनस वृक्षोंसे आच्छादित, सप्तपत्री ( सप्तच्छद), मल्लि, शाल, चम्पक, नारंग, मातुलिंग, पुन्नाग, नाग, कुब्जक और अशोक इत्यादि वृक्षासे रमणीय, कोयलोंके कल-कल शब्दसे भरे हुए, मयूरोंकी विविध क्रीड़ाओंसे युक्त, सुरकरि अर्थात् ऐरावत हाथीके उत्तम शब्दसे व्याप्त, और विद्याधर व देवयुगलोंकी क्रीडाके स्थल हैं ॥ १८१५-१८१७ ॥ पाण्डुवनमें इन वनखंडोंकी उत्तरदिशामें तटवनवेदीसे युक्त और अर्ध चन्द्रमाके समान आकारवाली पाण्डुकशिला है ॥ १८१८ ॥ यह पाण्डुकशिला पूर्व-पश्चिममें सौ योजन लम्बी और दक्षिण-उत्तरभागमें पचास योजन विस्तारसे सहित है । इसके बहुमध्यभागमें दोनों ओरसे क्रमशः हानि होती गई है ॥ १८१९ ॥ सर्वत्र सुवर्णमयी वह पाण्डुकशिला आठ योजन ऊंची, ऊपर समवृत्ताकार और वनवेदी आदिसे संयुक्त है ॥ १८२० ॥ यह पाण्डुकशिला चार योजन ऊंची, पांचसौ योजन लंबी और इससे आधे अर्थात् अढाईसौ योजनप्रमाण विस्तारसे सहित है । इसप्रकार सग्गायणी आचार्य निरूपण करते हैं ॥ १८२१ ।। ४ । ५०० । २५० । १ द ब अवली. २ द ब पलसेहिं. ३ द व सुरकरिवरसद्दइण्णो. ४ द व पंडुवणं. ५ द. ब होदे. ६ द व अद्धच्छेहो. ७ द ब होहि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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