Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 461
________________ ३९४ ] तिलोयपण्णत्ती [४. १९४०तेरससहस्सजुत्ता पंच सया जोयणाणि एक्करसं । एक्करसहि हिदछंसी सोमणसे परिरयपमाणं ॥ १९४० . सोमणसं करिकेसरितमालहितालकदलिबकुलेहिं । लवलीलवंगचंपयपणसप्पहुदीहिं तं छण्णं ॥ १९४१ सुरकोकिलमहुररवं मोरादिविहंगमेहि रमणिज । खेयरसुरमिहुणेहिं संकिणं विविहवाविजुदं ॥ १९४२ तम्मि वणे पुव्वादिसु मंदरपासे पुराइ चत्तारिं । वजं वजपहक्खं सुवण्णणाम सुवण्णपहं ॥ १९४३ पंडुवणपुराहिंतो एदाणिं वासपहुदिदुगुणाणि । वररयणविरइदाई कालागरुधूवसुरहीणि ॥ १९४४ ते चेव लोयपाला तेत्तियमेत्ताहि सुंदरीहिं जुदा । एदाणं मझेसु विविहविणोदेण कीडंति ॥ १९४५ उप्पलगुम्मा णलिणा उप्पलणामा य उप्पलुजलया । तव्वणअग्गिदिसाए पोक्खरणीओ हवंति चत्तारि ॥ १९४६ पणवीसद्धियरुंदा रुंदादो दुगुणजोयणायामा । पणजोयणावगार्डी पत्तेकं ताओ सोहंति ॥ १९४७ २५। २५ । ५। जलयरचत्तजलोहा वरवेदीतोरणेहिं परियरिया। कद्दमरहिदा ताओ हीणाओ हाणिवड्डीहिं ॥ १९४८ . सौमनसवनकी परिधिका प्रमाण तेरह हजार पांचसौ ग्यारह योजन और ग्यारहसे भाजित छह अंशप्रमाण है ॥ १९४० ॥ १३५११६ । यह सौमनस वन नागकेशर, तमाल, हिंताल, कदली, बकुल, लवली, लवंग, चम्पक और कटहलप्रभृति वृक्षोंसे व्याप्त, सुरकोयलोंके मधुर शब्दोंसे मुखरित, मोर आदि पक्षियोंसे रमणीय, विद्याधर व देवयुगलोंसे संकीर्ण और विविध प्रकारकी वापियोंसे युक्त है ॥ १९४१-१९४२ ॥ इस वनके भीतर मन्दरके पास पूर्वादिक दिशाओंमें वज्र, वज्रप्रभ, सुवर्ण और सुवर्णप्रभ नामक चार पुर हैं ॥ १९४३ ॥ ये पुर पाण्डुकवनके पुरों की अपेक्षा दुगुणे विस्तारादिसे सहित, उत्तम रत्नोंसे विरचित और कालागरु धूपकी सुगन्धसे व्याप्त हैं ॥ १९४४ ॥ इन पुरोंके मध्यमें वे ही ( पूर्वोक्त ) लोकपाल उतनी ही सुन्दरियोंसे युक्त होकर नाना प्रकारके विनोदसे क्रीडा करते हैं ॥ १९४५ ।। : ___ उस वनकी आग्नेयदिशामें उत्पलगुल्मा, नलिना, उत्पला नामक और उत्पलोज्ज्वला, ये चार पुष्करिणी हैं ॥ १९४६ ॥ वे प्रत्येक पुष्करिणी पच्चीसके आधे ( साढ़े बारह ) योजनप्रमाण विस्तारसे सहित, विस्तारको अपेक्षा दूनी लंबी और पांच योजनमात्र गहराई से संयुक्त होती हुई शोभायमान होती हैं ॥ १९४७ ।। विस्तार २५ । आयाम २५ । अवगाह ५।। __वे पुष्करिणी जलचर जीवोंसे रहित जलसमूहको धारण करनेवाली, उत्तम वेदी व तोरणोंसे वेष्टित, कीचड़से रहित और हानि-वृद्धिसे हीन हैं ॥ १९४८ ॥ १ द एक्करसहिदो छंसा,ब एक्करसहिं छंसा. २ द वज्रपहक्खं जमहक्खं सुव्वणं णाम सुव्वणपहं, व वज्जपहक्खं जमहक्खं णाम सुव्वणपहं. ३ दब लोयपालो. ४द ब जोयणावगाढो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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