Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 475
________________ ४०८ ] तिलोयपण्णत्ती [ ४. २०५९ वरि विसेसो एसो लोहिदकूडे वसेदि भोगवदी । भोगंकइ' भो देवी कूडे फलिहाभिधाणम्मि || २०५९ णव कूडा चेट्टंते उवरिम्मि गिरिम्स मालवंतस्स । सिद्धक्खमालमुत्तरकुरुकच्छो सागरं हि रजदक्खं ॥ २०६० तह पुण्णभइसीदा हरिसहणामो इमाण कूडाणं | वित्थारोदयपहुदी विज्जुप्पभकूडसारिच्छा || २०६१ एक्को णवार विसेसो सागरकडेसु भोगवदिणामा । णिवसेदि रजदकूडे णामेणं भोगमालिणी देवी ॥ २०६२ मंदरगिरिदो गच्छिय जोयणमद्धं गिरिम्मि एदसि । सोहेदि गुहा पव्वय वित्थारसरिच्छदीहत्ता ॥ २०६३ तीए दोपासेसुं दारा नियाजोग्गउदयवित्थारा । फुरिदवररयणकिरणा भकिट्टिमा ते णिरुवमाणा ॥ २०६४ णिसहधराहरउवरिमतिगिछदहस्स उत्तरदुवारे । णिगच्छेदि उच्चणदी सीदोदा भुवणविक्खादा ॥ २०६५ जोयण सत्तसहस्से चउस्सदे एक्कवीस अदिरित्तं । णिसहस्सोवरि वच्चदि सीदादा उत्तरमुद्देणं ॥ २०६६ आगंतूण तदोसा पडिसीदोदणामकुंडम्मि । पडिदूणं णिग्गच्छदि तस्सुत्तरतोरणदुवारे ॥ २०६७ णिग्गच्छिय सा गच्छदि उत्तरमग्गेण जाव मेरुगिरिं । दोकोसेहिमपाविय निवत्तदे पच्छिममुद्देणं ॥। २०६८ विशेष यह है कि लोहितकूटपर भोगवती और स्फटिक नामक कूटपर भोगंकृति या भोगकरा नामक देवी निवास करती है । २०५९ ॥ 1 माल्यवान् पर्वतके ऊपर नौ कूट स्थित हैं । सिद्ध नामक, माल्यवान्, उत्तरकुरु, कच्छ, सागर, रजत नामक, पूर्णभद्र, सीता और हरिसह, ये इन कूटोंके नाम हैं। इनका विस्तार व उंचाई आदिक विद्युत्प्रभपर्वतके कूटोंके सदृश समझना चाहिये ॥ २०६०-२०६१ ॥ विशेषता केवल यह है कि सागरकूटपर भोगवती और रजतकूटपर भोगमालिनी नामक देवी निवास करती है ॥ २०६२ ॥ मन्दरपर्वत से आधा योजन आगे जाकर इस पर्वत के ऊपर पर्वतीय विस्तार के सदृश लंबी गुफा कही जाती है || २०६३ ॥ उसके दोनों पार्श्वभागों में अपने योग्य उदय व विस्तारसे सहित तथा प्रकाशमान उत्तम रत्न किरणोंसे संयुक्त वे अकृत्रिम एवं अनुपम द्वार हैं ॥। २०६४ ॥ निषेधपर्वतके ऊपर तिगिछद्रहके उत्तरद्वारसे भुवनविख्यात सीतोदा महानदी निकलती है | २०६५ ॥ यह सीतोदा नी उत्तरमुख होकर सात हजार चारसौ इक्कीस योजनसे कुछ अधिक निषध पर्वत के ऊपर जाती है | २०६६ ॥ पश्चात वह नदी पर्वतपरसे आकर और प्रतिसीतोद नामक कुण्डमें गिरकर उसके उत्तरतोरणद्वार से निकलती हुई उत्तर मार्ग से मेरुपर्वतपर्यन्त जाती है । पुनः दो कोसोंसे मेरु पर्वतको न पाकर अर्थात् मेरुपर्वतसे दो कोस इधर ही रहकर उक्त नदी पश्चिमकी ओर मुड़ जाती है ।। २०६७-२०६८ ॥ १ द ब भोगंकहि. २ द व मंतर ३ द ब सागरंमि. ४ द ब साहेदि गुणा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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