Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 484
________________ - ४.२१५१ ] उत्थो महाधियारो पणुवीस सहरलाई णवसयगिसीदिजोयणा रुंदो । दोगय दंतसमीवे चंकसरूवेण णिद्दिहं ॥ २१४३ २५९८१ । णिसहवरवे दिवारणदंताचलपासकुंडणिस्सरिदा । चउसीदिसहस्सा णि णदीउ पविसंति' सीदोदं ॥ २१४४ ८४००० । सुसम सुसमम्मि काले जा भणिदा वण्णणा विचित्तयरा । सा हाणीए विहीणा एदस्सेि णिसहसेले य ॥ २१४५ णिसहस्त्तरपासे पुग्वाए दिलाए विज्जुपद्दगिरिणो । सीदोदवाहिणीए पच्छिल्लदिसाए भागमि ॥ २१४६ मंदरगिरिंदणइरिदिभागे खेत्तम्मि देवकुरुणामे । सम्मैलिरुक्खाण थलं रजदमयं चेट्ठदे रम्मं ॥ २१४७ पंचसयजोयणाणि हेट्ठतले तस्स होदि वित्थारो । पण्णारस परिहीए एकसीदिजुदा य तस्सधिया ॥ २१४८ ५०० | १५८१ । मज्झिमउदयमाणं अहं चिय जोयणाणि एदस्स । सव्वंतसुं उदभ दो दो कोसं पुढं होदि ॥ २१४९ ८ । २ । [ ४१७ सम्मलिरुक्खाण थलं तिष्णि वणा वेढिदूण चेर्हति । विविश्वररुक्खछण्णा देवासुरमिहुणसंकिण्णा || २१५० वारं थलस्स चेट्ठदि समंतदो वेदिया सुवण्णमई | दारोवरिमतलेसुं जिनिंदभवणेहिं संपुष्णा ॥ २१५१ दोनों गजदन्तों के समीप में उसका विस्तार वक्ररूप से पच्चीस हजार नौसौ इक्यासी योजनप्रमाण निर्दिष्ट किया गया है || २१४३ ॥ २५९८१ । निषधपर्वतकी उत्तम वेदी और गजदन्तपर्वतों के पासमें स्थित कुण्डोंसे निकली हुई चौरासी हजार नदियां सीतोदानदी में प्रवेश करती हैं ।। २१४४ ॥ ८४००० | सुषमसुषमाकालके विषयमें जो विचित्रतर वर्णन किया गया है, वही वर्णन हानिसे रहित इस निषधशैलसे परे देवकुरुक्षेत्र में समझना चाहिये ॥ २१४५ ॥ देवकुरुक्षेत्र के भीतर निषधपर्वतके उत्तरपार्श्वभागमें, विद्युत्प्रभपर्वत से पूर्व दिशा में, सीतोदानदीकी पश्चिमदिशामें ओर मन्दरगिरिके नैऋत्य भागमें रमणीय रजतमय शाल्मलीवृक्षोंका स्थल स्थित है । २१४६-२१४७ ॥ उसका विस्तार नीचे पांचसौ योजन और परिधि पन्द्रह सौ इक्यासी योजन से अधिक है ।। २१४८ ।। ५०० । १५८१ । इसकी मध्यम उंचाईका प्रमाण आठ योजन और सबके अन्तमें पृथक् पृथक् दो दो कोसमात्र है || २१४९ ॥ यो० ८ | को० २ । विविध प्रकारके उत्तम वृक्षोंसे व्याप्त और सुरासुरयुगलोंसे संकीर्ण तीन वन शाल्मलीवृक्षों के स्थलको वेष्टित करके स्थित हैं ॥ २१५० ॥ स्थलके ऊपर चारों ओर द्वारोंके उपरिम भागमें स्थित जिनेन्द्रभवनोंसे परिपूर्ण सुवर्णमय वेदिका स्थित है ।। २१५१ ॥ १ द ब पविसत्त. २ द ब एदासिं. ३ द संबलि ४ द दोहो. TP53. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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