Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 473
________________ ४०६] तिलोयपण्णत्ती [ ४. २०४१ आदिमकडोवरिमे जिणभवणं तस्स वासउच्छेहो । दीहं च वण्णणाओ पंडुगवणजिणपुरस्स सारिच्छा ॥२०४१ सेसेसु कूडेसु वेंतरदेवाण होति पासादा । वेदीतोरणजुत्ता कणयमया रयणवरखचिदा ॥ २०४२ कंचणकूडे णिवसइ सुवच्छदेवि त्ति एक्कपल्लाऊ । सिरिवच्छमित्तदेवी कूडवरे विमलणामम्मि ॥ २०४३ अवसेसेसुं चउसु कूडेसु वाणवेंतरा देवा । णियकूडसरिसणामा विविहविणोदेण कीडंति ॥ २०४४ विज्जुपहस्स य उवरि णव कूडा होति णिरुवमायारा। सिद्धो विज्जुपहक्खो देवकुरूपउमतवणसटिकया ॥२०४५ सयउज्जलसीदोदा हरि त्ति णामेहि भुवणविक्खादा । एदाण च उच्छेहो णियसेलुच्छेहचउभागो ॥ २०४६ दीहत्ते वि वियासे उवएसो ताण संपइ पणट्ठो । आदिमकूडस्सुदयो' पणवीसजुदं च जोयणाण सयं ॥ २०४७ एकं चिय होदि सयं अंतिमकूडस्स उदयपरिमाणं । उभयविसेसे अडहिदपंचकदी हाणिवड्डीओ ॥ २०४८ इच्छाए गुणिदाओ हाणिवड्डीओ खिदिविसुद्धाभो । मुहजुत्ताओ कमसो कूडाणं होदि उच्छेहो ॥ २०४९ पणवीसभहियसयं वियाणमुदओ पहिल्लए सेसे । उप्पण्णुप्पणेसुं पणवीसं समवणेज अट्टहिदं ॥ २०५० प्रथम कूटके ऊपर एक जिनभवन है। इसके विस्तार, उंचाई और लंबाई आदिका वर्णन पाण्डुकवनसम्बन्धी जिनपुरके सदृश है ॥ २०४१ ॥ शेष कूटोंपर वेदी एवं तोरणसे सहित और उत्तम रत्नोंसे खचित ऐसे व्यन्तर देवोंके सुवर्णमय प्रासाद हैं ॥ २०४२ ॥ कांचनकूटपर एक पल्यप्रमाण आयुसे युक्त सुवत्सा देवी ( सुमित्रा देवी ) और विमलनामक श्रेष्ठ कूटपर श्रीवत्समित्रा देवी निवास करती है ॥ २०४३ ॥ शेष चार कूटोंपर अपने कूटके सदृश नामवाले व्यन्तरदेव विविध प्रकारके विनोदसे क्रीड़ा करते हैं ।। २०४४ ॥ __ विद्युत्प्रभ पर्वतके ऊपर सिद्ध, विद्युत्प्रभ नामक, देवकुरु, पद्म, तपन, स्वस्तिक, शतउज्ज्वल (शतज्वाल), सीतोदा और हरि, इन नामोंसे भुवनमें विख्यात और अनुपम आकारवाले नौ कूट हैं । इन कूटोंकी उंचाई अपने पर्वतकी उंचाईके चतुर्थ भागप्रमाण है ॥ २०४५-२०४६ ॥ उन कूटोंकी लंबाई और विस्तारविषयक उपदेश इस समय नष्ट होचुका है । इनमेंसे प्रथम कूटकी उंचाई एकसौ पच्चीस योजन और अन्तिम कूटकी उंचाईका प्रमाण एकसौ योजन है। प्रथम कूटकी उंचाईमेंसे अन्तिम कूटकी उंचाईको घटाकर शेष पांचके वर्गमें आठका भाग देनेसे हानि-वृद्धिका प्रमाण निकलता है ॥ २०४७-२०४८ ॥ ___इच्छासे गुणित हानि-वृद्धिके प्रमाणको भूमिमें से कम करने अथवा मुखमें जोड़ देने पर क्रमसे कूटोंकी उंचाई होती है ॥ २०४९ ॥ ____ प्रथम कूटकी उंचाई एकसौ पच्चीस योजनप्रमाण जानना चाहिये । तथा शेष कूटोंकी उंचाई जानने के लिये उत्तरोत्तर उत्पन्न प्रमाणमेंसे आठसे भाजित पच्चीस योजन कम करते जाना चाहिये ॥ २०५०॥ १ द ब 'देवो. २ द ब देवो. ३ द ब वि वियादे. ४ द आदिमकूडाणिवहो, ब आदिमकूडाणुदयो. ५ ब अट्ठहिद. ६ द गुणिदादियवडीओ खिदिमहाविसुद्धाओ, ब गुणिदाहियवडीओ खिदिमहाविसुद्धाओ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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