Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 471
________________ ४०४] तिलोयपण्णत्ती [ ४. २०२६एक्वत्तरि सहस्सा इगिसयतेदालजोयणा य कला । णवहणिदुणवीसहिदा सगतीसा वट्टविखंभा ॥ २०२६ ७११४३३७ णीलणिसहद्दिपासे पण्णासब्भहियदुसयजोयणया । तत्तो पदेसवढी पत्तेक मेरुसेलंतं ॥ २०२७ २५०। ( ताणं च मेरुपासे पंचसया जोयणाणि वित्यारो। लोयविणिच्छयकत्ता एवं णियमा णिरूवेदि ॥ २०२८) ५००। पाठान्तरम् । सिरिभहसालवेदीवक्खारगिरीण अंतरपमाणं । पंचसयजोयणाणिं सग्गायणियम्मि णिढिं ॥ २०२९ . ५००। पाठान्तरम्। गयदंताणं गाढा णियमियउदयप्पमाणचउभागा। सोमणसगिरिदोवरि चेटुंते सत्त कूडाणि ॥ २०३० सिद्धो सोमणसक्खो देवकुरू मंगलो विमलणामो । कंचणवसिटकूडा णिसहंता मंदरप्पहुदी ॥ २०३१ सोमणससेलउदए चउभजिदे होंति कूडउदयाणि । वित्थारायामेसु कूडाणं णस्थि उवएसो । २०३२ भूमिय मुहं विसोधिय उदयहिद भूमुहादिखयवड्डी। मुइसय पणघण भूमी उदओ इगिहाणकूडपरिसंखा ॥२०३३ १००। १२५।६। - यह वृत्तविष्कंभ इकहत्तर हजार एकसौ तेतालीस योजन और नौगुणित उन्नीससे भाजित सैंतीस कलाप्रमाण है ॥ २०२६ ॥ ५३००० २ ( २ २५००० x 3 ) + २ २५००० = ७११४३३७१ । नील और निषधपर्वतके पासमें इन पर्वतोंका विस्तार दोसौ पचास योजन है । इसके आगे मेरुपर्वततक प्रत्येकमें प्रदेशवृद्धिके होनेसे मेरुके पासमें उनका विस्तार पांच सौ योजनप्रमाण हो गया है। इसप्रकार लोकविनिश्चयके कर्ता नियमसे निरूपण करते हैं ॥२०२७-२०२८ ॥ २५० । ५०० । पाठान्तर। श्रीभद्रशालवेदी और वक्षारमिरियोंके अन्तरका प्रमाण पांचसौ योजन सग्गायणीमें बतलाया गया है ॥ २०२९ ॥ ५००॥ पाठान्तर । ___ इन गजदन्तोंकी गहराई अपनी अपनी उंचाईप्रमाणके चतुर्थांशमात्र है। सौमनसपर्वतके ऊपर सिद्ध, सौमनस, देवकुरु, मंगल, विमल, कांचन और वशिष्ट, ये सात कूट मेरुसे लेकर निषधपर्वतपर्यन्त स्थित हैं ॥ २०३०-२०३१ ॥ सौमनसपर्वतकी उंचाईमें चारका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतनी इन कूटोंकी उंचाई है। इन कूटोंके विस्तार और लंबाईके विषयमें उपदेश नहीं है ॥ २०३२ ॥ भूमिमेंसे मुखको कम करके उदयका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना भूमिकी अपेक्षा हानि और मुखकी अपेक्षा वृद्धिका प्रमाण होता है । यहां मुखका प्रमाण सौ योजन, भूमिका पांचके धनप्रमाण अर्थात् एकसौ पच्चीस योजन और उदय एक कम कूटसंख्याप्रमाण है ॥२०३३॥ १००।१२५। ६। १ द व समाणं. २ दब उदओ. ३ द व मुहम्मि सोधिय. ४ द व छम्माण. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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