Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 465
________________ ३९८] तिलोयपण्णत्ती [ ४. १९७५ वासो पणघणकोसा तहगुणा मंदिराण उच्छेहो । लोयविणिच्छयकत्ता एवं माणे णिरूवेदि ॥ १९७५ १२५ । २५० । [पाठान्तरम् ) कूडेसुं देवीओ कण्णकुमारीओ दिव्वरूवाओ । मेघंकरमेघवदी सुमेघया मेघमालिणी तुरिमा ॥ १९७६ तोअंधरा विचित्ता पुप्फयमालो यार्णदिदा चरिमा । पुवादिसु कूडेसु कमेण चेति एदाओ ॥ १९७७ बलभद्दणामकूडो ईसाणादिसाए तब्वणे होदि । जोयणसयमुत्तुंगो मूलम्मि व तत्तिओ वासो ॥ १९७८ १००।१०। पण्णासजोयणाई सिहरे कूडस्स वासवित्थारो। मुहभूमीमिलिदद्धं मज्झिमविस्थारंपरिमाणं ॥ १९७९ एस बलभद्दकूडो सहस्सजोयणपमाणउच्छेहो । तेत्तियरुंदपमाणो दिणयरबिंब व समवहो ॥ १९८० १०००।१०००। सोमणसस्स य वासं णिस्सेसं रुभिदूण सो सेलो । पंचसयजोयणाई तत्तो रुंभेदि याकासं ॥ १९८१ दसविंदं भूवासो पंचसया जोयणाणि मुहवासो । एवं लोयविणिच्छयमग्गायणिएमुदीरेदि ॥ १९८२ १०००। ५०० । पाठान्तरम् । मन्दिरोंका विस्तार पांचके धन अर्थात् एकसौ पच्चीस कोसप्रमाण और उंचाई इससे दुगुणी है । इसप्रकार लोकविनिश्चयके कर्ता इनके प्रमाणका निरूपण करते हैं ॥ १९७५ ।। ___ व्यास १२५ । उत्सेध २५० । [पाठान्तर । - पूर्वादिक कूटोंपर क्रमसे मेघंकरा, मेघवती, सुमेघा, चतुर्थ मेघमालिनी, तोयंधरा, विचित्रा, पुष्पमाला और अन्तिम अनिन्दिता, इसप्रकार ये दिव्य रूपवाली कन्याकुमारी देवियां स्थित हैं ॥ १९७६-१९७७ ॥ सौमनसवनके भीतर ईशानदिशामें एकसौ योजनप्रमाण ऊंचा और मूलमें इतने ही विस्तारवाला बलभद्र नामक कूट है ॥ १९७८ ॥ उत्सेध १०० । व्यास १००।। ___ उस कूटका विस्तार शिखरपर पचास योजन और मध्यमें मुख एवं भूमिके सम्मिलित विस्तारप्रमाणसे आधा है ॥ १९७९ ।। यह बलभद्रकूट हजार योजनप्रमाण ऊंचा और इतने ही विस्तारप्रमाणसे सहित होता हुआ सूर्यमण्डलके समान समवृत्त है ॥ १९८० ॥ उत्सेध १००० । विस्तार १००० । ___ वह शैल सौमनसवनके सम्पूर्ण विस्तारको रोककर पुनः पांचसौ योजनप्रमाण आकाशको रोकता है ॥ १९८१ ॥ उसका भूविस्तार दशके घनरूप अर्थात् एक हजार योजन और मुखविस्तार पांचसौ योजनप्रमाण है । इसप्रकार लोकविनिश्चय व मग्गायणीमें कहते हैं ॥ १९८२ ॥ १००० । ५००। पाठान्तर। १ दब मंदराण. २ दब.पुष्फयमाली. .३.द ब वित्थारस्स.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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