Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-४. १०९० ] चउत्यो महाधियारो
[२८५ अहवा दुक्खप्पहुदी जीए मुणिवयणसवणमेसेणं । णासदि णरतिरियाणं तच्चिये महुवासवी रिद्धी ॥ १०८३ मणिपाणिसठियाणि रुक्खाहारादियाणि जीय खणे पावंति भामियभावं एसा अमियासवी रिद्धी ॥ १०८५ महवा दुक्खादीणं महेसिवयणस्स सवणकालमि । णासंति जीए सिग्धं सा रिद्धीअमियासवी गामा ॥१०८५ रिसिपाणितलेणिखित्तं रुक्खाहारादियं पि खणमेत्ते । पावेदि सप्पिरूवं जीए सा सप्पियासवी रिद्धी ॥॥ अहवा दुक्खप्पमुहं सवणेण मुर्णिददिब्ववयणस्स । उवसामदि जीवाणं एसा सप्पियासवी रिद्री ॥१०८७
।एवं रसरिद्धी समत्ता । तिहुवणविम्हयजणणा दो भेदा होति खेत्तरिद्धीए । अक्खीणमहाणसिया अक्खीणमहालया य णामेण ॥ १०८८ लाभंतरायकम्मक्खउवसमसंजुदाए जीए फुडं । मुणिभुत्तसेसमण्णं धामत्थं पियं जं के पि ॥ १०८९ तद्दिवसे खजंतं खंधावारेण चक्कवहिस्स । झिजइ ण लवेण वि सा अक्खीणमहाणसा रिद्धी ॥ १०९०
अथवा, जिस ऋद्धिसे मुनिके वचनोंके श्रवणमात्रसे मनुष्य-तियचोंके दुःखादिक नष्ट हो जाते हैं, वह मध्वास्रवी ऋद्धि है ॥ १०८३ ॥
जिस ऋद्धिके प्रभावसे मुनिके हाथमें स्थित रूखे आहारादिक क्षणमात्रमें अमृतपनेको प्राप्त करते हैं, वह अमृतास्रवी ऋद्धि है ॥ १०८४ ॥
_अथवा, जिस ऋद्धिसे महर्षिके वचनोंके श्रवणकालमें शीघ्र ही दुःखादिक नष्ट हो जाते हैं, वह अमृतानवी नामक ऋद्धि है ॥ १०८५ ॥
जिस ऋद्धिसे ऋषिके हस्ततलमें निक्षिप्त रूखा आहारादिक भी क्षणमात्रमें घृतरूपको प्राप्त करता है, वह सर्पिरास्रवीऋद्धि है ॥ १०८६ ॥
अथवा, जिस ऋद्धिके प्रभावसे मुनीन्द्रके दिव्य वचनोंके सुननेसे ही जीवोंके दुःखादिक शान्त होजाते हैं, वह सर्पिरास्रवीऋद्धि है ॥ १०८७ ॥
इसप्रकार रसऋद्धि समाप्त हुई। क्षेत्रऋद्धिके त्रिभुवनको विस्मित करनेवाले दो भेद होते हैं, एक अक्षीणमहानसिक और दूसरा अक्षीणमहालय ॥ १०८८ ॥
लाभान्तरायकर्मके क्षयोपशमसे संयुक्त जिस ऋद्धिके प्रभावसे मुनिके आहारसे शेष भोजनशालामें रखे हुए अन्नमेंसे जिस किसी भी प्रिय वस्तुको यदि उस दिन चक्रवर्तीका सम्पूर्ण कटक भी खावे तो भी वह लेशमात्र क्षीण नहीं होता है, वह अक्षीणमहानसिकऋद्धि है ॥ १०८९-१०९० ॥
१ [ स चिय ]. २ ब महुरोसवी. ३ द जीवखणे. ४ द ब सवणकादम्मि. ५ द पाणितला.
६ दब मुणिभुत्तसेसेसुमण्णद्धामशं पियं के पि ।
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