Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 417
________________ ३५० ] तिलोयपण्णत्ती [४. १५७३ ताधे बहुविहओसहिजुदाणे पुंडरियपावको णस्थि । अह कुलकरा जराणं उवदेसं देंति विणयजुत्ताणं ॥ १५७३ मधिदूण कुणह अगि पचेह अण्णाणि भुंजह जहिच्छं । करियं विवाहं बंधवपहुदिहारेण सोक्खेणं ॥ १५७४ अइमेच्छा ते पुरिसा जे सिक्खावंति कुलयरा इत्थं । णवरि विवाहविहीओ वटुंते पउमपुंखाओ ॥ १५७५ । दुस्समकालो सम्मत्तो।। तसो दुस्समसुसमो कालो पविसेदि तस्स पढमस्स । सगहत्था उस्सेहो वीसब्भहियं सयं आऊ ॥ १५७६ ७। १२० । पुट्ठी चउवीसं मणुवा तह पंचवण्णदेहजुदा । मजायविणयलज्जा संतुीं होदि संपण्णा ॥ १५७७ २४ । तकाले तित्थयरा चउवीस हवंति ताण पढमजिणों"। अंतिल्लकुलकरसुदो विदेहवत्ती तदो होदि ॥ १५७८ महपउमो सुरदेओ सुपासणामो सयपहो तह य । सवपहो देवसुदो कुलसुदउदका य पोटिलओ ॥ १५७९ जयकित्ती मुणिसुन्वयअरयभपापा य णिक्कसायाओ । विउलो णिम्मलणामा अचित्तगुत्तो समाहिगुत्तो य ।। १५८० उणवीसमो सयंभू अणिभट्टी जयो य विमलणामो य । तह देवपालणामा अणंतविरिओ अ होदि चउवीसा ॥१५८१ उस समय विविध प्रकारकी औषधियोंके होते हुए भी पुण्डरीक ( श्रेष्ठ ) अग्नि नहीं रहती। तब विनयसे युक्त उन मनुष्योंको कुलकर उपदेश देते हैं ॥ १५७३ ॥ मथ करके आगको उत्पन्न करो और अन्नको पकाओ। तथा विवाह करके बान्धवादिकके निमित्तसे इच्छानुसार सुखका उपभोग करो ॥ १५७४ ॥ जिनको कुलकर इसप्रकारकी शिक्षा देते हैं, वे पुरुष अत्यन्त म्लेच्छ होते हैं। विशेष यह है कि पद्मपुंख कुलकरके समयसे विवाहविधियां प्रचलित होजाती हैं ॥ १५७५ ॥ ___ इसप्रकार दुष्षमाकालका वर्णन समाप्त हुआ। इसके पश्चात् दुष्षमसुषमा कालका प्रवेश होता है। इसके प्रारंभमें उंचाई सात हाथ और आयु एकसौ बीस वर्षप्रमाण होती है ॥ १५७६ ॥ उत्सेध ७ हाथ । आयु १२० वर्ष ।। ___ इस समय पृष्ठभागकी हड्डियां चौबीस होती हैं। तथा मनुष्य पांच वर्णवाले शरीरसे युक्त, मर्यादा, विनय एवं लज्जासे सहित, सन्तुष्ट और सम्पन्न होते हैं ॥ १५७७ ॥ २४ ।। इस कालमें चौबीस तीर्थंकर होते हैं। उनमेंसे प्रथम तीर्थंकर अन्तिम कुलकरका पुत्र होता है। उस समयसे यहां विदेहक्षेत्र जैसी वृत्ति होने लगती है ॥ १५७८ ।।। ___महापद्म, सुरदेवे, सुपार्श्व नामक, स्वयंप्रभ, सर्वप्रभ ( सर्वात्मभूत ), देवसुतं, कुलसुत, उदक (उदंक ), प्रोष्ठिले, जयकीर्ति, मुनिसुव्रत, अरे, अपाप, निष्काथ, विपुल, निर्मल, चित्रगुप्त, समाधिगुप्त, उन्नीसवां स्वयंभू, अनिवृत्ति ( अनि वर्तक ), जये, विमल नामक, देवपाल नामक और अनन्तवीर्य ये चौबीस तीर्थंकर होते हैं ॥ १५७९-१५८१ ।। १ द ब ओसहिजुदाय. २ द ब णठाणं. ३ द दिति. ४ द ब करण. ५ द ब काला सम्मत्ता. ६द ब सत्तुच्छा. ७ द ब पढमजिणा. ८ द ब जया. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |

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