Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 421
________________ ३५४ ] तिलोय पण्णत्ती [ ४. १६०९ तत्तो कमलो बहवा मणुवा तेरिच्छसयलवियलक्खा । उप्पजंति हु जाव य दुस्समसुसमस्स चरिमो ति ।। १६०९ संत एकसमए विलक्खायंगिणिवद्दकुलभेयो । तुरिमस्स पढमसमए कप्पतरूणं पि उप्पत्ती ॥ १६१० पविसंति मणुवतिरिया जेत्तियमेत्ता जहण्णभोगखिदिं । तेत्तियमेत्ता होंति हु तक्काले भरद्दखेत्तम्मि ॥ १६११ अवसप्पिणीए दुस्समसुसमपवेसस्स पढमसमयम्मि । वियलिंदियउप्पत्ती बड्डी जीवाण थोवकालम्मि ॥ १६१२ कमसो बह्वृति हु तियकाले मणुवतिरियाणमवि संखौं । तत्तो उस्सप्पिणिए दिए वर्हति पुष्वं वा ।। १६१३ अवसप्पिणिउस्सप्पिणिकाल च्चिय रहटघटियणाएणं। होंति अणंताणंता भरद्देरावदखिदिम्मि पुढं ।। १६१४ अवसप्पिणिउस्सप्पिणिकालसलाया गदे यसंखाणि । हुंडावसप्पिणी सा एक्काँ जाएदि तस्स चिण्हमिमं ॥ १६१५ तसि पि सुसमदुस्समकालस्स ठिदिग्मि थोवश्रवसेसे । णिवडदि पाउसपहुदी वियलिंदियजीवउप्पत्ती ।। १६१६ कप्पतरूण विरामो वावारो होदि कम्मभूमीए । तक्काले जायंते पढमजिणो पढमचक्की य ।। १६१७ इसके पश्चात् फिर क्रमसे दुष्षमसुषमाकालके अन्त तक बहुतसे मनुष्य और सकलेन्द्रिय एवं विकलेन्द्रिय तिर्यंच जीव उत्पन्न होते हैं | १६०९ ॥ तत्पश्चात् एक समयमें विकलेन्द्रिय प्राणियों के समूह व कुलभेद नष्ट होजाते हैं तथा चतुर्थ कालके प्रथम समयमें कल्पवृक्षोंकी भी उत्पत्ति हो जाती है ।। १६१० ॥ जितने मनुष्य और तिर्यञ्च जघन्य भोगभूमिमें प्रवेश करते हैं उतने ही इस कालके भीतर भरत क्षेत्र में होते हैं ॥ १६११ ॥ अवसर्पिणीकालमें दुष्षमसुषमाकालके प्रारंभिक प्रथम समयमें थोड़े ही समयके भीतर विकलेन्द्रियों की उत्पत्ति और जीवोंकी वृद्धि होने लगती है ॥ १६१२ ॥ इसप्रकार क्रमसे तीन कालों में मनुष्य और तिर्यञ्च जीवोंकी संख्या बढ़ती ही रहती है । फिर इसके पश्चात् उत्सर्पिणीके तीन कालों में भी पहिलेके समान ही वे जीव वर्तमान रहते हैं ॥१६१३ ॥ भरत और ऐरावत क्षेत्र में रँहटघटिकान्यायसे अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल अनन्तानन्त होते ह । ( अर्थात् जिसप्रकार रँहटकी घरियां बार बार ऊपर व नीचे आती-जाती हैं इसीप्रकार अवसर्पिणीके पश्चात् उत्सर्पिणी और उत्सर्पिणीके पश्चात् अवसर्पिणी, इस क्रम से सदा इन कालका परिवर्तन होता ही रहता है ) || १६१४ ॥ असंख्यात अवसर्पिणी- उत्सर्पिणीकालकी शलाकाओंके बीत जानेपर प्रसिद्ध एक हुण्डावसर्पिणी आती है; उसके चिह्न ये हैं || १६१५ ॥ इस हुण्डावसर्पिणीकालके भीतर सुषमदुष्षमाकालकी स्थितिमेंसे कुछ कालके अवशिष्ट रहनेपर भी वर्षा आदिक पडने लगती है और विकलेन्द्रिय जीवोंकी उत्पत्ति होने लगती है ।। १६१६ ॥ इसके अतिरिक्त इसी कालमें कल्पवृक्षोंका अन्त और कर्मभूमिका व्यापार प्रारम्भ हो जाता है । उस कालमें प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती भी उत्पन्न हो जाते हैं ।। १६१७ ।। १ द ब 'विइकुल'. २ द 'तिरियपविसंखा, ब तिरियमविसंखा ३ द व सो एक्का. ४ द ब तसं. ५ द ब विंदिम्मि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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