Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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तिलोयपण्णत्ती
[ ४. १३००
एक्कं वाससहस्सं पग्णालसहस्पयाणि पुम्बाणिं । पणुवीससहस्साणि पण्णाससहस्साणि वासाणं ॥१३००
१०००। ५००००। २५००० । ५०००० । पगुवीससहस्साणिं तेवीससहस्ससत्तसयपण्णा । इगिवीससहस्साणि पंचसहस्साणि पंचसया ॥ १३०॥
२५००० । २३७५० । २१००० ।५०००० । ५०० । पणुवीसाधि यत्तिलया तिसया छप्पण्ण इयकमेण पुढं । मंडलियकालमाणं भरहप्पमुहाण चक्कीणं ॥१३०२
३२५। ३००। ५६ । अह भरहप्पमुहाणं आयुधसालासु भुवणविम्हयरा । गदजम्मंतरकयतवबलेण उप्पजदे चकं ॥ १३.३ चक्कुप्पत्तिपहिट्ठा पूजं कादूण जिणवरिंदाणं । पच्छा विजयपयाणं ते पुवदिसाए कुब्वति ॥ १३०४ सुरसिंधूए तीरं धरिऊर्ण जति पुवादिभाए। मरुदेवणाममण्णे णो कालादो जावमुवजलधि ॥ १३०५ अप्पविसिऊण गंगाउववणवेदीए तोरणदारे । उत्तरमुहेण पविसिय चउरंगबलेण संजुत्ता ॥१३०६ गंतु पुवाहिमुहंदीओववणस्स वेदियादारे । सोवाणे चडिदूर्ण गंगादारम्भि गच्छंति ॥ १३०७ गतूर्ण लीलाए तष्णिम्मगरम्मदिब्बवणमझे । पुष्वावरमायामे चउरंगबलाणि अच्छंति ॥ १३०८
एक हजार वर्षपूर्व, पचास हजार वर्षपूर्व, पच्चीस हजार वर्ष, पचास हजार वर्ष, पञ्चीस हजार वर्ष, तेईस हजार सातसौ पचास वर्ष, इक्कीस हजार वर्ष, पांच हजार वर्ष, पांचसौ वर्ष, तीनसौ पच्चीस, तीनसौ और छप्पन वर्ष, इस क्रमसे पृथक् पृथक् भरतादिक चक्रवर्तियोंके मण्डलीककालका प्रमाण है ।। १३००-१३०२॥
मण्डलीककाल-- भरत पूर्व १००० । सगर ५०००० । मघवा वर्ष २५०००। सन. ५०००० । शान्ति २५०००। कुंथु २३७५० । अर २१००० ।सुभौम ५०००। पन्न ५०० । हरिषेण ३२५ । जयसेन ३०० । ब्रह्म. ५६
पूर्व जन्ममें किये गये तपके बलसे भरतादिकोंकी आयुधशालाओंमें भुवनको विस्मित करनेवाला चक्ररत्न उत्पन्न होता है ॥ १३०३ ॥
चक्रकी उत्पत्तिसे अतिशय हर्षको प्राप्त हुए वे चक्रवर्ती जिनेन्द्रोंकी पूजा करके पश्चात् विजयके निमित्त पूर्वदिशामें प्रयाण करते हैं ॥ १३०४ ॥
वे गंगानदीके तटका सहारा लेकर पूर्वदिशाभागमें ...() कितने ही कालमें, उपसमुद्रपर्यन्त जाते हैं ॥ १३०५॥
___ इसके आगे गंगानदीसम्बन्धी उपवनवेदीके तोरणद्वारमें प्रवेश न करके चतुरंग बलसे संयुक्त होते हुए वे चक्रवर्ती उत्तरमुखसे प्रवेश करके पूर्वकी ओर जानेके लिये जम्बूद्वीपसम्बन्धी उपवनवेदिकाके द्वारमें सीढ़ियोंपर चढ़कर गंगाद्वारमें होकर जाते हैं ॥ १३०६-१३०७ ॥
इसप्रकार लीलामात्रसे जाकर पूर्व से पश्चिम तक लम्बे नदीसम्बन्धी रमणीय दिव्य वनमें चतुरंग बल ठहर जाते हैं ॥ १३०८ ॥
१ दब गंगादारंति.
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