Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
View full book text
________________
२६२] तिलोयपण्णत्ती
[४.८९०पणवीसभहियसयं दोहि विहत्तं च पासणाहम्मि । विगुणियपणवीसाई तित्थयरे वडमाणम्मि ॥ ८९०
उदए गंधउडीए दंडाणं णवसयाणि उसहजिणे । कमसो मिजिणंतं चउवीसविमत्तपभवहीणाणि ॥ ८९१
९०० । १७२५ | १६५० | १५७५ | १५०० | १४२५ १३५० | १२७५ / १२०० | ११२५)
१०५० / ९७५ / ९०० / ८२५ / ७५० | ६७५ / ६०० ५२५ | ४५० | ३७५ | ३०० | २२५
२ । २ । २ २ | २ २ । २ । २ | २ | २ २ । २ पणुहत्तरिजुदतिसया पासजिणिदम्मि चउविहत्ता य । पणुवीसोणं च सयं जिणपवरे वीरणाहम्मि ॥ ८९२
३७५
सिंहासणाणि मज्झे गंधउडीण सपादपीढाणि । वरफलिहाणम्मिदाण घंटाजालादिरम्माणि ॥ ८९३ रयणखचिदाणि ताणि जिणिदउच्छेहजोग्गउदयाणि । इत्थं तित्थयराणं कहिदाई समवसरणाइं ।। ८९४
। समवसरणा समता । चउरंगुलंतराले उवरि सिंहासणाणि अहंता । चेटुंति गयणमांगे लोयालोयप्पयासमत्तंडा ॥ ८९५
भगवान् पार्श्वनाथके समवसरणमें गन्धकुटीका विस्तार दोसे विभक्त एकसौ पच्चीस धनुष और वर्धमान तीर्थकरके दुगुणित पच्चीस अर्थात् पचास धनुषप्रमाण था ॥ ८९० ॥
ऋषभ जिनेन्द्रके समवसरणमें गन्धकुटीकी उंचाई नौसौ धनुषप्रमाण था। फिर इसके आगे क्रमसे नेमिनाथ तीर्थंकरपर्यंत चौबीससे विभक्त मुखप्रमाण ( ९०० + २४ = ७.५ ) से हीन होती गयी है ॥ ८९१ ॥
पार्श्वनाथ जिनेन्द्रके समवसरणमें गंधकुटीकी उंचाई चारसे विभक्त तीनसौ पचत्तर धनुष, और वीरनाथ जिनेन्द्रके पच्चीस कम सौ धनुषप्रमाण थी ॥ ८९२ ॥
गन्धकुटियोंके मध्यमें पादपीठ सहित, उत्तम स्फटिक मणियोंसे निर्मित और घंटाओंके समूहादिकसे रमणीय सिंहासन होते हैं ।। ८९३ ॥
__ रत्नोंसे खचित उन सिंहासनोंकी उंचाई तीर्थंकरोंकी उंचाईके ही योग्य हुआ करती है। इसप्रकार यहां तीर्थंकरोंके समवसरणोंका कथन किया गया है ॥ ८९४ ॥
समवसरणोंका वर्णन समाप्त हुआ । लोक और अलोकको प्रकाशित करनेके लिये सूर्यके समान भगवान् अरहन्त देव उन सिंहासनोंके ऊपर आकाशमार्गमें चार अंगुलके अन्तरालसे स्थित रहते हैं ॥ ८९५ ॥
१द पणवीससोलं च. २ द ब गंधमदीणं. ३ द ब णिम्मदाणि. ४ द ब इति समवसरण सम्मत्ता. ५द बलंतरालो. ६द रयणमग्गे.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org