Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-४. ९७४ ]
उत्थो महाधियारो
मल्लीणामो सुप्पहवरदत्ता सयंभुइंदभूदीओ । उसहादीर्ण आदिमगणधरणामाणि एदाणि ॥ ९६६ एदे गणधरदेवा सब्वे वि हु अट्टरिद्धिसंपण्णा । ताणं रिद्धिसरूवं लवमेत्तं तं णिरूवेमो ॥ ९६७ बुद्धी - विकिरिये - किरिया तव-बल-वोसहि रसक्खिदी रिद्धी । एदासु बुद्धिरिद्धी अट्ठारसभेदविक्खादा ॥ ९६८ ओहिमणपजवाणं केवलणाणी वि बीजबुद्धी य । पंचमिया कोट्ठमई पदानुसारित्तणं छटुं ॥ ९६९ संभिण्णस्सोदित्तं दूरस्सादं च दूरपरसं च । दूरग्वाणं दूरस्सवणं तह दूरदंसणं चेय ॥ ९७० दसवोपुवित्तं निमित्तरिद्धीए तत्थ कुसलत्तं । पण्णसमणाभिधाणं कमसो पत्तेयबुद्धिवादित्तं ॥ ९७१ अंतिमखदंताई परमाणुप्पहृदिमुत्तिदब्वाई । जं पच्चक्खं जाणइ तमोद्दिणाणं ति णायव्वं ॥ ९७२ | ओहिणाणं गदं ।
चिंताए अचिंताए अर्चिताएँ विविभेयगयं । जं जाणइ णरलोए तं चिय मणपज्जवं गाणं ॥ ९७३ । मणपज्जवं णाणं गदं ।
असवत्तसयलभावं लोयालोएसु तिमिरपरिचत्तं । केवलमखंड मेदं केवलणाणं भणति जिर्णो ॥ ९७४ | केवलणाणं गदं ।
स्वयंभू, कुम्भ ( कुंथु ), विशाखे, मेल्लि, सुप्रभ ( सोमक ), वैरेदत्त, स्वयंभू और इन्द्र भूति, ऋषभादि तीर्थंकरोंके प्रथम गणधरोंके नाम हैं ।। ९६४ - ९६६ ॥
ये सब ही गणधर देव आठ ऋद्धियोंसे सहित होते हैं। यहां उन गणधरोंको ऋद्धियोंके लवमात्र स्वरूपका हम निरूपण करते हैं । ९६७ ॥
बुद्धि, विक्रिया, क्रिया, तप, बल, औषधि, रस और क्षिति ( क्षेत्र ) इन भेदोंसे ऋि आठ प्रकारकी है । इनमेंसे बुद्धि ऋद्धि अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान, बीजबुद्धि, कोष्ठमति, पदानुसारित्व, संभिन्नश्रोतृत्व, दूरास्वादान, दूरस्पर्श, दूरघ्राण, दूरश्रवण, दूरदर्शन, दशपूर्वित्व, चौदह पूर्वत्व, निमित्तऋद्धि इनमें कुशलता, प्रज्ञाश्रवण, प्रत्येकबुद्धित्व और वादित्व, इन अठारह भेदों से विख्यात है ।। ९६८- ९७१ ॥
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जो प्रत्यक्ष ज्ञान अन्तिम स्कन्धपर्यन्त परमाणु आदिक मूर्त द्रव्योंको जानता है उसको अवधिज्ञान जानना चाहिये ॥ ९७२ ॥
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अवधिज्ञान समाप्त हुआ ।
चिन्ता, अचिन्ता या अर्धचिन्ताके विषयभूत अनेक भेदरूप पदार्थको जो ज्ञान लोकके भीतर जानता है वह मन:पर्यय ज्ञान है || ९७३ ॥
१ द बुद्धीविकिरिय.. २ द दत्ताई, ब ' दत्ताई. ३ द ब अत्यंचिंता य.
मन:पर्ययज्ञान समाप्त हुआ ।
जो ज्ञान असपत्न अर्थात् प्रतिपक्षीसे रहित होकर सम्पूर्ण पदार्थोंको विषय करता है, लोक एवं अलोकके विषय में अज्ञानरूप तिमिरसे रहित है, केवल अर्थात् इन्द्रियादिककी सहायतासे विहीन है, और अखण्ड है उसे जिन भगवान् केवलज्ञान कहते हैं ॥ ९७४ ॥
केवलज्ञान समाप्त हुआ ।
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क्रमशः
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४ व जिला गं.
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