Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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२८०]
तिलोयपण्णत्ती
[४.१०४०
अविराहिदूण जीवे तल्लीणे बहुविहाण पत्ताणं । जा उवरि वञ्चदि मुणी सा रिद्धी पत्तचारणा णामा ॥ १०४० अविराहिदण जीवे अग्गिसिहासंठिए विचित्ताणं । जं ताण उवरि गमणं अग्गिसिहाचारणा रिद्धी ।। १०४१
रियपसरं धूम अवलंबिऊणे जे देति । पदखेवे अक्खलिआ सा रिद्धी धूमचारणा णाम ॥ १०४२ अविराहिदण जीवे अपुकाए बहुविहाण मेघाणं। जं उवरि गच्छिा मुणी सा रिद्धी मेघचारणा णाम ॥ १०४३ अविराहिय तल्लीणे जीवे घणमुक्कवारिधाराणं । उरि जं जादि मुणी सा धाराचारणा रिद्धी ॥ १०४४ मक्कडयतंतुपंतीउवरि अदिलघुओ तुरिदपदखेवे । गच्छेदि मुणिमहेसी सा मक्कडतंतुचारणा रिद्धी ॥ १०४५ अधउडतिरियपसरे किरणे अवलंबिर्दूण जोदीणं । जं गच्छेदि तवस्सी सा रिद्वी जोदिचारणा णाम ॥ १०४६ णाणाविहगदिमादपदेसपंतीसु देति पदखेवे । जं अक्खलिया मुणिणो ला मारुदचारणा रिद्धी ॥ १०४७ अण्णे विविहा भंगा चारणरिद्धीए भाजिदा भेदा । ताण सरूवंकहणे उवएसो अम्ह उच्छिण्णो ।। १०४८
। एवं किरियारिद्धी समत्ता ।
जिस ऋद्धिका धारक मुनि बहुत प्रकारके पत्तों में रहनेवाले जीवोंकी विराधना न करके उनके ऊपरसे जाता है, वह पत्रचारण नामक ऋद्धि है ॥ १०४० ॥
अग्निशिखाओंमें स्थित जीवोंकी विराधना न करके उन विचित्र अग्निशिखाओंपरसे गमन करनेको अग्निशिखाचारणऋद्धि कहते हैं ॥ १०४१ ॥
जिस ऋद्धिके प्रभावसे मुनिजन नीचे, ऊपर और तिरछे फैलनेवाले धुएँका अवलंबन करके अस्खलित पादक्षेप देते हुए गमन करते हैं, वह धूमचारण नामक ऋद्धि है ॥ १०४२ ॥
जिस ऋद्धिसे मुनि अकायिक जीवोंको पीडा न पहुंचाकर बहुत प्रकारके मेघोंपरसे गमन करता है, वह मेघचारण नामक ऋद्धि है ॥ १०४३ ॥
जिसके प्रभावसे मुनि मेघोंसे छोड़ी गयी जलधाराओंमें स्थित जीवोंको पीडा न पहुंचाकर उनके ऊपरसे जाते हैं, वह धाराचारणऋद्धि है ॥ १०४४ ॥
जिसकेद्वारा मुनि-महर्षि शीघ्रतासे किये गये पदविक्षेपमें अत्यन्त लघु होते हुए मकड़ीके तन्तुओंकी पंक्तिपरसे गमन करता है, वह मकडीतन्तुचारणऋद्धि है ॥ १०४५ ॥
जिससे तपस्वी नीचे, ऊपर और तिरछे फैलनेवाली ज्योतिषी देवोंके विमानोंकी किरणोंका अवलंबन करके गमन करता है, वह ज्योतिश्चारणऋद्धि है ॥ १०४६ ॥
जिसके प्रभावसे मुनि नाना प्रकारकी गतिसे युक्त वायुके प्रदेशोंकी पंक्तियोंपर अस्खलित होकर पदविक्षेप करते हैं, वह मारुतचारणऋद्धि है ॥ १०४७ ।।
__ इस चारणऋद्धिके विविध भंगोंसे युक्त विभक्त किये हुए और भी भेद होते हैं, परन्तु उनके स्वरूपका कथन करनेवाला उपदेश हमारे लिये नष्ट होचुका है ॥ १०४८ ।।
इसप्रकार क्रियाऋद्धि समाप्त हुई।
१द तल्लीणा. २दब अविलंबिऊण. ३ द ब उवरिम. ४ द ब अविलंबिदूण. ५द ब पदेससतीसु. ६ द दिति. ७ द भंजा. ८ द कहणो.
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