Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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तिलोयपण्णत्ती
कंटयसक्करपहुदि अवर्णेतो वादि सुक्खदो वाऊ । मोत्तूण पुव्ववेरं जीवा वटुंति मेत्तीसु ॥ ९०८ दप्पणतलसारिच्छा रयणमई होदि तेत्तिया भूमी। गंधोदकाई वरिसइ मेधकुमारो य सक्कआणाए ॥ ९०९ फलभारणमिदसालीजवादिसस्सं सुरा विकुब्वति । सव्वाणं जीवाणं उपज्जदि णिच्चमाणदं ॥९१० वायदि विकिरियाए वाउकुमारो य सीयलो पवण।। कूवतडायादीणि णिम्मलसलिलेग पुण्णाणि ॥ ९११ धूमुकपडपहुदीहिं विरहिदं होदि णिम्मलं गयणं । रोगादीणं बाधा ण होंति सयलाण जीवाणं ॥ ९१२ जखिदमत्थए सुं किरणुजलदिव्वधम्मचक्काणि । द?ण संठियाई चत्तारि जणस्स अच्छरिया ॥ ९१३ छप्पण चउद्दिसासुं कंचणकमलाणि तित्थकत्ताणं । एकं च पायपीढं अञ्चणदब्वाणि दिव्वविविधाणि ॥ ९१४
। चोत्तीस अइसया समत्ता।) जेसिं तरूण मुले उप्पण्णं जाण केवलं जाणं । उसहप्पहदिजिणाणं ते चिय असोयरुक्ख त्ति ॥ ९१५
ग्गोहसत्तपण्णं सालं सरलं पियंगु तं चेव । सिरिसं णागतरू वि य अक्खा धूली पलास तेंदूवं ॥ ९१६ पाडलजंबू पिप्पलदहिवण्णो णदितिलयचूदा य । कंकल्लिचंपबउलं मेसयसिंग धवं सालं ॥ ९१७ सोहंति असोयतरू पल्लवकुसुमाणदाहि साहाहि । लंबतमालदामा घंटाजालादिरमणिज्जा ॥ ९१८
है, जीव पूर्व वैरको छोड़कर मैत्रीभावसे रहने लगते हैं, उतनी भूमि दर्पणतलके सदृश स्वच्छ और रत्नमय होजाती है, सौधर्म इन्द्रकी आज्ञासे मेघकुमार देव सुगन्धित जलकी वर्षा करता है, देवं विक्रियासे फलोंके भारसे नम्रीभूत शालि और जौ आदि सस्यको रचते हैं, सब जीवोंको नित्य आनन्द उत्पन्न होता है, वायुकुमार देव विक्रियासे शीतल पवन चलाता है, कूप और तालाब आदिक निर्मल जलसे पूर्ण होजाते हैं, आकाश धुआं और उल्कापातादिसे रहित होकर निर्मल होजाता है, सम्पूर्ण जीवोंको रोगादिकी बाधायें नहीं होती हैं, यक्षेन्द्रोंके मस्तकोंपर स्थित और किरणोंसे उज्ज्वल ऐसे चार दिव्य धर्मचक्रोंको देखकर जनोंको आश्चय होता है, तीर्थंकरोंके चारों दिशाओंमें ( विदिशाओंसहित ) छप्पन सुवर्णकमल, एक पादपीठ और दिव्य एवं विविध प्रकारके पूजनद्रव्य होते हैं ।। ९०७-९१४ ॥
___ चौंतीस अतिशयोंका वर्णन समाप्त हुआ। ऋषभादि तीर्थंकरोंको जिन वृक्षोंके नीचे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है वे ही अशोक वृक्ष , हैं ॥ ९१५॥
न्यग्रोध, सप्तपर्ण, शाल, सरल, प्रियंगु, फिर वही ( प्रियंगु ), शिरीष, नागवृक्ष, अक्ष ( बहेड़ा ), धूली ( मालिवृक्ष ), पलाश, तंदू , पाटल, पपिल, दधिपर्ण, नन्दी, तिलक, आम्र, कंकेलि ( अशोक ), चम्पक, बकुल, मेषशृङ्ग, धव और शाल, ये अशोकवृक्ष लटकती हुई मालाओंसे युक्त
और घंटासमूहादिकसे रमणीय होते हुए पल्लव एवं पुष्पोंसे झुकी हुई शाखाओंसे शोभायमान होते हैं ॥ ९१६-९१८ ॥
१द ब गंधोदकेइ. २ ब संतियाइं. ३ बकिंकलि. ४ द ब मेलवसिंग.
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