Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
View full book text
________________
-१. १७७] पढमो महाधियारो
[ २३ विसदिगुणिदो लोओ उणवण्णहिदो य सेसखिदिसंखा । तसखेत्ते सम्मिलिदे लोगो तिगुणो अ सत्तहिदो ॥ १७३
२०। ३। घणफलमुवरिमहटिमलोयाण मेलिदम्मि सेढिघणं । वित्थरैरुइबोहत्थं वोच्छं णाणावियप्पे वि ॥१७५ सेढियसत्तमभागो हेटिमलोयस्स होदि मुहवासो । भूवित्थारो सेढी सेढि त्ति य तस्स उच्छेहो ॥ १७५
भूमिय मुहं विसोहिय उच्छेहहिद मुहाउ भूमीदो । सव्वेसु क्खेत्तेसुं पत्तेकं वडिहाणीओ ॥१७६ तक्खयवडिपमाणं णियणियउदयाहदं जइच्छाए । हीणब्भहिए संते वासाणि हवंति भूमुहाहितो ॥ १७७
लोकको बीससे गुणा करके उसमें उनचासका भाग देनेपर त्रसनालीको छोड़ बाकी ऊर्ध्वलोकका घनफल निकल आता है । लोकको तिगुणा कर उसमें सातका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना त्रसनालीयुक्त पूर्ण ऊर्बलोकका घनफल है ॥ १७३ ॥
३४३ x २०४९ % १४० त्रसनालीसे रहित ऊ. लो. का घ. फ. ३४३ ४ ३ ७ = १४७ वसनालीयुक्त ऊ. लो. का घनफल.
ऊर्ध्व और अधोलोकके घनफलको मिला देनेपर वह श्रेणीके धनप्रमाण ( लोक ) होता है। अब विस्तारमें अनुराग रखनेवाले शिष्योंको समझानेकेलिये अनेक विकल्पोंद्वारा भी इसका कथन करता हूं ॥ १७४ ॥
ऊ. घ. १४७ + अ. ध. १९६ = ३४३ [ ७४ ७४७ = ३४३ श्रे. घ. ]
अधोलोकके मुखका व्यास श्रेणीका सातवां भाग अर्थात् एक राजु, और भूमिका विस्तार श्रेणीप्रमाण [ ७ रा. ] है, तथा उसकी उंचाई भी श्रेणीमात्र ही है ॥ १७५ ॥
रा. १ । ७ । ७ । भूमिके प्रमाणमेंसे मुखका प्रमाण घटाकर शेषमें उंचाईके प्रमाणका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना, सब भूमियों से प्रत्येक धृथिवीक्षेत्रकी, मुखकी अपेक्षा वृद्धि और भूमिकी अपेक्षा हानिका प्रमाण निकलता है ॥ १७६ ॥
७ - १ + ७ = ६ वृद्धि और हानि का प्रमाण । _ विवक्षित स्थानमें अपनी अपनी उंचाईसे उस वृद्धि और क्षयके प्रमाणको [६] गुणा करके जो गुणनफल प्राप्त हो, उसको भूमिके प्रमाणमेंसे घटानेपर अथवा मुखके प्रमाणमें जोड़ देनेपर उक्त स्थानमें व्यासका प्रमाण निकलता है ॥ १७७ ॥
विशेषार्थ-- कल्पना कीजिये कि यदि हमें भूमिकी अपेक्षा चतुर्थ स्थानके व्यासका प्रमाण निकालना है, तो हानिका प्रमाण जो छह बटे सात [5] है, उसे उक्त स्थानकी उंचाईसे [३ रा.]
१ द ब वित्थररुहि. २ द ब सत्ते. ३ द ब ६.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org