Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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२३२ ]
तिलोयपण्णत्ती
[४.७०९
अहमिंदा जे देवा आसणकंपेण तं वि णाणं । गंतूण तेत्तियं चिय तत्थ ठिया ते णमंति जिणे ॥ ७०९ ताहै सक्काणाए जिणाण सयलाण समवसरणाणि । विक्किरियाए धणदो विरएदि विचित्तरूवेहिं ॥ ७१० उवमातीतं ताणं को सका वण्णिदुं सयलरूवं । एहि लवमेत्तमहं साहेमि जहाणुपुवीए ॥ ७११ सामण्णभूमिमाणं माणं सोवाणयाण विण्णासो । वीही धूलीसाला चेत्तप्पासादभूमीओ॥ ७१२ णयसाला थंभा वेदी खादी य वेदि-बल्लिखिदी। साला उववणवसुहा णट्टयसाला य वेदि-धयखोणी ॥ ७१३ सालो कप्पमहीओ जयसाला य वेदि-भवणमही । थूहा साला सिरिमंडव य रिसिगणाण विण्णासो ॥ ७१४ वेदी पढमं बिदियं तदियं पीढं च गंधउडिमाणं । इदि इगितीसा पुह पुह अहियारा समवसरणाणं ॥ ७१५ रविमंडल वँ वहा सयला वि य खंधइंदणीलमई । सामण्णखिदी बारस जोयणमेत्तं मि उसहस्स ॥ ७१६ तत्तो बेकोसूणो पत्तेक मिणाहपजतं । चउभागेण विरहिदा पासस्स य वडमाणस्स ॥७१७
उ जोयण १२ । अजिय २३ । सं ११ । अहिणं २१ । सु १० । प १९ । सु ९ । चं १७। पु।
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से ७ । वा १३ । वि ६ । अ११।ध ५ । सं ९ । कुं ४ । अ ७ । म ३ । मु ५ ।
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जो अहमिन्द्र देव हैं, वे भी आसनोंके कंपित होनेसे केवलज्ञानकी उत्पत्तिको जानकर और उतने ही ( सात पैर ) आगे जाकर वहां स्थित होते हुए जिन भगवान्को नमस्कार करते हैं ॥ ७०९ ॥
___ उस समय सौधर्म इन्द्रकी आज्ञासे कुबेर विक्रियाके द्वारा सम्पूर्ण तीर्थङ्करोंके समवसरणोंको विचित्ररूपसे रचता है ॥ ७१० ॥
उन समवसरणोंके अनुपम सम्पूर्ण स्वरूपका वर्णन करनेके लिये कौन समर्थ है ! अब मैं आनुपूर्वीके अनुसार समवसरणके स्वरूपका लेशमात्र कथन करता हूं ॥ ७११ ॥
____सामान्य भूमिका प्रमाण, सोपानोंका प्रमाण, 'विन्यास, 'वीथी, धूलिशाल, चैत्यप्रासादभूमियां, नृत्यशाला, मानस्तम्भ, 'वेदी, खातिका, "वेदी, लता मि, सौल, उपवनभूमि, नृत्यशाला, "वेदी, जक्षोणी, साल, कल्पभूमि, नृत्यशाली, "वेदी, भवनमही, स्तूपैं, साल, श्रीमण्डप, ऋषि आदि गणोंका विन्यास, "वेदी, “पीठ, "द्वितीय पीठ, तृतीय पीठ और गधकुटीका प्रमाण, इसप्रकार समवसरणके कथनमें पृथक् पृथक् ये इकतीस अधिकार हैं ।। ७१२-७१५ ॥
_भगवान् ऋषभदेवके समवसरणकी सम्पूर्ण सामान्यभूमि सूर्यमण्डलके सदृश गोल, स्कंध ( भिन्न ) इन्द्रनीलमणिमयी, और बारह योजनप्रमाण विस्तारसे युक्त थी ॥ ७१६ ॥
इसके आगे भगवान् नेमिनाथपर्यन्त प्रत्येक तीर्थकरके समवसरणकी सामान्यभूमि दो कोस कम और पार्श्वनाथ एवं वर्धमान तीर्थकरकी योजनके चतुर्थ भागसे कम थी ॥ ७१७ ।।
१ द व जिणो. २ द इण्इं. ३ द सिरिमंददिय हरिसगाणाण, ब 'सिरिमंदवि य हरिसिगणाण. ४ द रविमंडलवट्टा.
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