Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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१६० तिलोयपण्णत्ती
[ ४. १५३कंचणपायारत्तयपरियरिओ गोउरेहिं संजुत्तो । वरवजणीलविद्दममरगयवेरुलियपरिणामो ॥ १५३ लंबंतरयणदामो णाणाकुसुमोपहारकयसोहो । गोसीरमलयचंदणकोलागुरुधूवगंधडो ॥ १५४ वरवजकवाडजुदो बहुविहदारोहिं सोहिदो विउलो । वरमाणथंभसहिमो जिजिंदगेहो णिरुवमाणो ॥ १५५ भिंगारकलसदप्पणचामरघंटादवत्तपहुदीहं । पूजादब्वेहिं तदो विचित्तवरवत्थएहि वा ॥ १५६ पुण्णायणायचंपयअसोयबउलादिरुक्खपुण्णेहिं । उज्जाणेहिं सोहदि विविहहिं जिणिंदपासादो ॥ १५७ सच्छजलपूरिदाह कमलुप्पलसंडमंडणधराहिपोक्खरणीहि रम्मो मणिमयसोवाणमालाहि ॥ १५८ तास जिणिंदपडिमा अट्ठमहामंगलेोह संपुण्णा । सीहासणादिसहिदा चामरकरणागजक्खमिहुणजुदा ॥ १५९ भिंगारकलसदप्पणवीयणधयछत्तचमरसुपइट्ठा । इय अट्ठमंगलाई पत्तेक्कं अट्ठअधियसयं ॥ १६० किं तीए वाणिजइ जिगिंदपडिमाय सासदड्डीएँ । जी हरइ सयलदुरियं सुमरणमेत्तेण भव्वाण ॥ १६१
एवं हिंरूवं पढिम जिणस्स तत्थट्रिदं भत्तिए सच्छचित्ता । झायंति केई सुविणट्टकम्मा ते मोक्खमग्गं० सकलं लहंते ॥ १६२
तीन सुवर्णमय प्राकारोंसे वेष्टित, गोपुरोंसे संयुक्त; उत्तम वज्र, नील, विद्रुम, मरकत और वैडूर्य मणियोंसे निर्मित; लटकती हुई रत्नमालाओंसे युक्त; नानाप्रकारके फूलोंके उपहारसे शोभायमान गोशीर, मलयचंदन, कालागुरु और धूपकी गन्धसे व्याप्त; उत्कृष्ट वज्रकपाटोंसे युक्त, बहुतप्रकारके द्वारोंसे सुशोभित, विशाल और उत्तम मानस्तम्भोंसे सहित वह जिनेंद्र भवन अनुपम है ॥ १५३-१५५ ॥
___ वह जिनेंद्रप्रासाद झारी, कलश, दर्पण, चामर, घंटा और आतपत्र ( छत्र ) इत्यादि पूजाद्रव्योंसे; विचित्र व उत्तम वस्त्रोंसे; तथा नाग, पुनाग, चंपक, अशोक और वकुलादिक वृक्षोंसे परिपूर्ण विविधप्रकारके उद्यानोंसे शोभायमान है ॥ १५६-१५७ ॥
वह जिन भवन स्वच्छ जलसे परिपूर्ण, कमल और नील कमलोंके समूहसे अलंकृत भूमिभागोंसे युक्त, और मणिमय सोपानपंक्तियोंसे शोभायमान, ऐसी पुष्करिणियोंसे रमणीय है ॥१५८ ॥
उस जिनेन्द्रमन्दिरमें अष्ट महामंगलद्रव्योंसे परिपूर्ण, सिंहासनादिकसे सहित, और हाथमें चामरोंको लिये हुए नागयक्षोंके युगलसे युक्त, ऐसी जिनेन्द्रप्रतिमा विराजमान है ॥ १५९ ॥
झारी, कलश, दर्पण, व्यजन, ध्वजा, छत्र, चमर और सुप्रतिष्ठ ( ठौना ), इन आठ मंगलद्रव्यों से प्रत्येक वहां एकसौ आठ आठ हैं ॥ १६० ॥
जो स्मरणमात्रसे ही भव्य जीवोंके सम्पूर्ण पापको नष्ट करती है, ऐसी उस शाश्वत ऋद्धिसे युक्त जिनेन्द्रप्रतिमाका कितना वर्णन किया जाय ? ॥ १६१ ॥
उस जिनमन्दिरमें स्थित इसप्रकारकी सुन्दर जिनमूर्तिका जो कोई भव्य जीव निर्मलचित्त होकर भक्तिसे ध्यान करते हैं, वे कर्मोको नष्ट करके सम्पूर्ण मोक्षमार्गको प्राप्त करते हैं ॥ १६२ ॥
१द संजुत्ता. २ब कालागरु.३ द ब "वत्थसोहिं. ४ द मंडणधराई. ५द बसोहाण'. ६ दमालाई. ७ ब सासदरिद्धीए. ८ब जो. ९द भत्तिपसत्थचित्तो, ब भत्तिए सच्छाचत्तो. १० द ब मोक्खमाणं.
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