Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-४. ६२७ ]
चउत्थो महाधियारो
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एवं अणंतखुत्तो णिञ्चचदुग्मदिणिगोदमज्झम्मि । जम्मणमरणरहट्ट अणंतखुत्तो परिगदोज ॥६१९ पुग्वगदपावगुरगो मादापिदरस्स रत्तसुक्कादो । जादूण य दसरतं अच्छदि कललस्सरूवेणं ॥ ६२. कलुसीकदम्मि अध्छदि दसरत्तं तत्तिय मि थिरभूदं । पत्तेक्कं मासं चिय वुवुर्दघणभूदमांसपेसी य ॥१२॥ पंचपुलगाउअंगोवंगाई चम्मरोमणहरूवं । फंदणमट्ठममासे णवमे दसमे य णिग्गमणं ॥ ६२२ भसुची यपेक्खणिजं दुग्गंधं मुत्तसोणिददुवारं । वोत्तुं पि लजणिज्जं पोद्दमुहं जम्मभूमी से ॥ ६२३ आमासयस्य हेढा उवरि पक्कासयस्स गूधम्मि । मज्झम्मि वत्थिपडले पच्छण्णो वमिकपिजतो॥ ६२४ अच्छदि णवदसमासे गन्भे आहदि सम्वअंगेसु । गूधरसं अइकुणिमं घोरतरं दुक्खसंभूदं ॥ ६२५ बालत्तणम्मि गुरुगं दुक्खं पत्तो यजाणमाणेण । जोव्वणकाले मज्झे इत्थीपासम्मि संसत्तो ॥ ६२६ वेढेदि विसयहेतुं कलत्तपासेहिं दुविमोचेहिं । कोसेण कोसकारो व दुम्मदी मोहपासेसु ॥ ६२०
इसप्रकार अनन्तवार नित्य और चतुर्गति ( इतर ) निगोदमें जाकर अनन्तवार जिस जन्म-मरणरूप अरहट (घटीयंत्र ) को प्राप्त किया है ( उसके विषयमें विचार कर )॥ ६१९॥
पूर्वकृत महा पापके उदयसे जीव माताके रक्त और पिताके शुक्रसे उत्पन्न होकर दश रात्रितक कललरूप पर्यायमें रहता है ॥ ६२० ॥
पश्चात् दश रात्रितक कलुषीकृत पर्यायमें और इतनी ही अर्थात् दश रात्रितक स्थिरीभूत पर्यायमें रहता है। इसके पश्चात् प्रत्येक मासमें क्रमसे बुबुद, घनभूत, मांसपेशी, पांच पुलक, अंगोपांग और चर्म, तथा रोम व नखोंकी उत्पत्ति होती है। पुनः आठवें मासमें स्पंदन क्रिया और नववे या दशवें मासमें निर्गमन होता है ॥ ६२१-६२२ ॥
जो अशुचि है, अदर्शनीय है, दुर्गंधसे युक्त है, मूत्र और खूनका द्वार है, और जिसके कहने में भी लज्जा आती है, ऐसा जो उदरका मुख ( योनि ) है, वह इस प्राणीके जन्मका स्थान है ॥ ६२३ ॥
यह प्राणी गर्भसमयमें आमाशयके नीचे और पकाशयके ऊपर मलमें बीचोंबीच वस्तिपटलसे ( जरायुपटलसे ) आच्छादित, वान्ति ( वमन ) को पीता हुआ नौ दश मास गर्भमें स्थित रहता है और वहां सब अंगोंमें अत्यन्त दुर्गन्धसे युक्त एवं भयानक दुखसे उत्पन्न ऐसे विष्टारसको आहारके रूपमें ग्रहण करता हैं ॥ ६२४-६२५ ॥
यह जीव बालकपनमें अज्ञान रहनेसे भारी दुखको प्राप्त हुआ, और यौवनकालमें स्त्रीके पासमें आसक्त रहा ॥ ६२६ ॥
जिसप्रकार रेशमका कीडा रेशमके तन्तुजालसे अपने आपको वेष्टित करता है, उसीप्रकार यह दुर्मति जीव मोहपाशमें बंधकर विषयके निमित्त दुर्विमोच स्त्रीरूप पाशोंसे अपनेको मोहजालमें फंसा लेता है ॥ ६२७ ॥
. १ द परिगदा जं, ब परिगदाजं. २ द कललहस्स. ३ द ब कलुसे . ४ द °च्छुच्छुदघणभूद'. ५ दब पंचबलकाउ. ६ द चमणमरोमरूवं. बचणमरोमरूवं, ७द बतिव्वपडले. ८ब आहारदि. ९ द ब बालत्तणंपि. १० द ब वेदेदि. ११ द ब °हेदू. १२ द बध्दुमदी, ब बद्धुममदी...:
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