Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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१८६ तिलोयपण्णत्ती
[ ४. ३३२णस्थि असण्णी जीवा णस्थि तहा सामिभिश्चभेदो ये । विकलपहो जुद्धादीरुद्रणभावा दुग हु होति ॥ ३३२ रतिदिणाणं भेदो तिमिरादवसीदवेदणा जिंदा । परदाररदी परधणचोरी' णं णस्थि णियमेण ॥ ३३३ जमलाजमलपसूदा वरवेंजणलक्खणेहिं परिपुण्णा । बदरपमाणाहारं अट्ठमभत्तेसु भुजंति ॥ ३३४) (तास काले छ शिय चावसहस्साणि देहउस्सेहो । तिण्णि पलिदोवमाई माऊणि णराण णारीण ॥ ३३५ पुट्ठीए होति भट्ठी छप्पण्णा समधिया य दोण्णि सया । सुसमसुसमम्मि काले णराण णारीण पत्तेकं ॥ ३३६ भिणिदणीलकेसा णिरुवमलावण्णरूवपरिपुण्णा । सुहसायरमज्झगया णीलुप्पलसुरहिणिस्सासा ।। ३३७ तब्भोगभूमिजादा णवणागसहस्ससरिसबलजुत्ता । आरत्तपाणिपादा वणचंपयकुसुमगंधड्डा ॥ ३३८ मद्दवभजवजुत्ता मंदकसाया सुसीलसंपुण्णा । आदिमसंहडणजुदा समचउरस्संगसंठाणा ॥ ३३९ बालरवीसमतेया कवलाहारा वि विगदणीहारा । ते जुगलधम्मजुत्ता परिवारा णथि तक्काले ॥३४० गामणयरादि सवं ण होदिते होंति सम्वकप्पतरू । णियणियमणसंकप्पियवत्यूँणि देंति जुगलाणं ॥ ३४
इस कालमें असंज्ञी जीव नहीं होते तथा स्वामी और भृत्यका भी भेद नहीं होता, इसीप्रकार नर-नारी कान्तिसे रहित और युद्धादिक विरोधकारक भाव भी नहीं होते ॥ ३३२ ॥
प्रथमकालमें नियमसे रात-दिनका भेद, अन्धकार, गर्मी व शीतकी निंद्य वेदना, परस्त्रीरमण और परधनहरण नहीं होता ॥ ३३३ ॥
__ इसकालमें युगल-युगलरूपसे उत्पन्न हुए मनुष्य उत्तम व्यंजनों (तिल मश इत्यादिक) और चिहों ( शंख चक्र इत्यादिक ) से परिपूर्ण होते हुए अष्टमभक्तमें अर्थात् चौथे दिन बेरके बराबर आहार ग्रहण करते हैं ॥ ३३४ ॥
... इस कालमें पुरुष और स्त्रियोंके शरीरकी उंचाई छह हजार धनुष तथा आयु तीन पल्योपमप्रमाण होती है ॥ ३३५ ॥
सुषमसुषमाकालमें पुरुष और स्त्रियोंमेंसे प्रत्येकके पृष्ठभागमें दोसौ छप्पन हड़ियां होती हैं ॥ ३३६ ॥
- इस कालमें मनुष्य भिन्न इन्द्रनील मणिके सदृश केशवाले, अनुपम लावण्यरूपसे परिपूर्ण, सुखसागरके मध्यमें मग्न, और नील कमलके समान सुगंधित निश्वासवायुसे युक्त होते हैं ॥ ३३७ ।।
उस भोगभूमिमें उत्पन्न हुए मनुष्य नौ हजार हाथियोंके सदृश बलसे युक्त, किंचित् लाल हाथ-पैरवाले, वन चम्पकके फूलोंकी सुगन्धसे व्याप्त, मार्दव एवं आर्जवसे सहित, मन्दकषायी, सुशीलतापूर्ण, आदिके अर्थात् वज्रवृषभनाराचसंहननसे युक्त, समचतुरस्रशरीरसंस्थानवाले उगते हुए सूर्यके सदृश तेजस्वी, कवलाहारको करते हुए भी मल-मूत्रसे रहित, और युगलधर्मसे सहित होते हैं । इस कालमें नर-नारीके अतिरिक्त अन्य परिवार नहीं होता ॥ ३३८-३४० ॥
इस समय वहांपर गांव व नगरादिक सब नहीं होते, केवल वे सब कल्पवृक्ष होते हैं जो युगलोंको अपने अपने मनकी कल्पित वस्तुओंको दिया करते हैं ॥ ३४१ ॥
१द व भेदाओ.२ द ब पहो. ३. द ब भावा हु. ४ द ब चारी. ५:द ब छव्विह. ५ द 'सहस्सा. ७ द 'वत्थूणे, व वत्थूण.
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