Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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१४६ ] तिलोयपण्णत्ती
[४. ३२मझिमपासादाण हुवेदि उदयो दिवसयदंडा । दोणि सया दीहचं पत्तेकं एक्सब संदं ॥ ३२
१५०। २००।१०.1 बउवीसं चावाणि ताण दुवारेसु होदि उच्छेहो । बारह भट्ट कमेणं दंडा विधारभवगाहा ॥
२४ । १२।८।। सामण्णचित्तकदलीगम्मलदाणादमासणगिहायो । गेहा हॉति विचिसा वेतरणयरेसु रमयारा . मेहुणमंडणमोलगवंदणमभिसेयणचणाणं पि । णाणाविहसालामो वररयणविणिम्मिदा होंति ॥ ३५ करिहरिसुकमोराणं मयरपवालाण गरुडहंसाणं । सारिच्छाई तेसु रम्मेसु भासणाणि चेटुंते ॥ १६ वररयणविरइदाणि विचित्तसयणाणि मउम्वपासाई। रेइंति मंदिरेसंदोपासठिदोषधाणाणि ॥३ कणय म्व णिरुबलेवा णिम्मलकंती सुगंधणिस्सासा । वरविविहभूसणयरा रविमंडलसरिसमउडसिरी ३० रोगजरापरिहीणा पत्तेकं दसधणूणि उत्तुंगा । वेंतरदेवा तेसु सुहेण कीरति सदा ॥३. (जिणमंदिरजुत्ताइं विचित्तविणासभवणपुण्णाई । सददं अकिष्टिमाइं वेंतरमवराणि रेहति ॥ ४०)
मध्यम प्रासादोंमें प्रत्येककी उंचाई डेढ़सौ धनुष, लम्बाई दोसौ धनुष और चौड़ाई एकसौ धनुषप्रमाण है ॥ ३२ ॥ उंचाई १५०; लंबाई २००; चौडाई १०० धनुष ।
इन प्रासादोंके प्रत्येकके द्वारकी उंचाई चौबीस धनुष, चौड़ाई बारह धनुष और अवगाढ़ आठ धनुषमात्र है ॥ ३३ ॥ उंचाई २४; चौड़ाई १२; अब. ८ धनुष ।
व्यंतरोंके नगरोंमें सामान्यगृह, चित्तगृह (चित्रशाला या चैत्यगृह ), कदलीगृह, गर्भगृह, लतागृह, नादगृह और आसनगृह; ये रम्य आकारवाले विचित्र गृहविशेष होते हैं ॥ ३४ ॥
___ इसके अतिरिक्त वहांपर मैथुनशाला, मण्डनशाला, ओलगशाला, वंदनशाला, अभिषेकशाला, और नृत्यशाला, इसप्रकार उत्तम रत्नोंसे निर्मित नानाप्रकारकी शालायें होती हैं ॥३५॥
इन रमणीय प्रासादोंमें हाथी, सिंह, शुक, मयूर, मगर, व्याल, गरुड और हंस, इनके सदृश आसन रखे हुए हैं ॥ ३६ ॥
___ महलोंमें उत्तम रत्नोंसे निर्मित, मृदुल स्पर्शवाले और दोनों पार्श्वभागमें स्थित तकियोंसे युक्त विचित्र शय्यायें शोभायमान हैं ॥ ३७॥
सुवर्णके समान निर्लेप, निर्मल कान्तिके धारक, सुगन्धमय निवाससे युक्त, उत्तमोत्तम विविधप्रकारके भूषणोंको धारणकरनेवाले, सिरपर सूर्यमण्डलके समान मुकुटके धारक, रोग एवं जरासे रहित, और प्रत्येक दश धनुष उंचे, ऐसे व्यन्तर देव उन नगरोंमें सुखपूर्वक खच्छंद क्रीडा करते हैं ।। ३८-३९ ॥
जिनमन्दिरोंसे संयुक्त, विचित्र रचनावाले भवनोंसे परिपूर्ण, और अकृत्रिम वे व्यन्तरनगर सदैव शोभायमान होते हैं ॥ ४० ॥
१ द मंडल ओलंग', व मंडणउलगं. २ द व निरुवलेहो. ३६३ मंडलिरा. ४ ६ ब जीमंदर,
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