Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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तिलोयपण्णत्ती
[ ३.१७७
raiस्से भवणवासिदेवाणं । उड्डेण होदि णाणं कंचणगिरिसिहरपरियंतं ॥ १७७ ताणादधोधो थोवत्थोवं पयहृदे ओही । तिरियसरूत्रेण पुणो बहुतरखेत्तेसु अक्खलिदं ॥ १७८ पणुवीस जोयणाणं होदि जहणणेण ओहिपरिमाणं । भावणवासिसुराणं एक्कदिणभंतरे काले ॥ १७९ असुराणामसंखेना जोयणकोडीउ ओहिपरिमाणं । खेत्ते कालम्मि पुणो होंति असंखेज्जवासाणिं ॥ १८० संखाती दसहस्सा उकस्से जोयणाणि सेसाणं । असुराणं कालादो संखेज्जगुणेण हीणा य ॥ १८१ णियणियओहिक्खतं णाणारूत्राणि तह विकुव्वंता । पूरंति असुरपहुदी भावणदेवा दसवियप्पा ॥ १८२ | ओही गदा ।
१३४ ]
गुणजीचा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणा कमसो । उवजोगा कहिदब्बा एदाण कुमारदेवाणं ॥ १८३ भवसुराणं भवरे दो गुणैठाणं च तम्मि चउसंखा । मिच्छाइट्ठी सासणसम्मो मिस्सो विरदसम्मा ॥ १८४ जीवसमासं दो च्चिय वित्तिय पुण्णपुण्णभेदेण । पज्जत्ती छच्चे य तेत्तियमेत्ता अपज्जत्ती ॥ १८५
अपने अपने भवन में स्थित भवनवासी देवोंका ज्ञान (अवधि) ऊर्ध्व दिशा में उत्कृष्टरूपसे मेरुपर्वतके शिखरपर्यन्त क्षेत्रको विषय करता है ॥ १७७ ॥
भवनवासी देवोंका अवधिज्ञान अपने अपने भवनों के नीचे नीचे थोडे थोडे क्षेत्र में प्रवृत्ति करता है, परन्तु वही तिरछेरूपसे बहुत अधिक क्षेत्रमें अबाधित प्रवृत्ति करता है ॥ १७८ ॥
भवनवासी देवोंके अवधिज्ञानका प्रमाण जघन्यरूप से पच्चीस योजन है । पुनः कालकी अपेक्षा उक्त अवधिज्ञान एक दिनके भीतरकी वस्तुको विषय करता है ॥ १७९ ॥
असुरकुमार देवोंके अवधिज्ञानका प्रमाण क्षेत्रकी अपेक्षा असंख्यात करोड़ योजन और कालकी अपक्षा असंख्यात वर्षमात्र है ॥ १८० ॥
शेष देवोंके अवधिज्ञानका प्रमाण उत्कृष्टरूपसे क्षेत्रकी अपेक्षा असंख्यात हजार योजन और कालकी अपेक्षा असुरकुमारोंके अवधिज्ञान के कालसे संख्यातगुणा कम हैं ॥ १८९ ॥
असुरादिक दशप्रकारके भवनवासी देव अनेक रूपोंकी विक्रिया करते हुए अपने अपने अवधिज्ञान के क्षेत्रको पूरित करते हैं ॥ १८२ ॥ अवधिज्ञानका कथन समाप्त हुआ ।
अब इन कुमारदेवोंके क्रमसे गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणा और उपयोग, इनका कथन करना चाहिये || १८३ ॥
भवनवासी देवोंके अपर्याप्त अवस्थामें मिथ्यात्व और सासादन ये दो, तथा पर्याप्त अवस्था में मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यक्त्व, मिश्र और अविरतसम्यग्दृष्टि, ये चार गुणस्थान होते हैं ॥ १८४ ॥ इन देवोंके निर्वृत्त्यपर्याप्त और पर्याप्तके भेदसे दोनों जीवसमास, छहों पर्याप्तियां और इतनी ही अपर्याप्तियां होती है ॥ १८५ ॥
१ द तट्टाणादो दोद्दो, व तट्टाणादोद्दो. २ द वकुब्वंता.
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३ व गुणट्टाणं चउ ४. ब छुच्चेव.
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