Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
View full book text
________________
-१. ४२]
पढमो महाधियारो ((छद्दव्वणवपयत्थे सुदणाणंदुमणिकिरणसत्तीए । देवखंतु भध्वजीवा अण्णाणतमेण संछण्णा ॥ ३४
।णिमित्तं गदं। दुविहो हवेदि हेदू लिलोयपण्णत्तिगंथयज्झयणे । जिणवरवयणहिटो पश्चक्खपरोक्खभेएहिं॥ ३५ सक्खापञ्चक्खपरंपच्चक्खा दोण्णि होदि पच्चक्खा । अण्णाणस्स विणासं णाणदिवायरस्स उप्पत्ती ॥ ३६ देवमणुस्सादीहिं संततमब्भच्चणप्पयाराणि । पडिसमयमसंखेजयगुणसेढिकम्मणिजरणं ॥ ३७ इय सक्खापच्चक्खं पच्चक्खपरंपरं च णादव्वं । सिस्सपडिसिस्सपहुदीह सददमब्भच्चणपयारं ॥ ३८ दोभेदं च परोक्खं अभुदयसोक्खाई मोक्खसोक्खाई । सादादिविविहसुपरसत्थकम्मतिब्वाणुभागउदएहि ॥१९ इंदपडिददिगिंदयतेत्तीसामरसमाणपहुदिसुह' । राजाहिराजमहराजद्धमंडलिमंडलयाणं ।। ४० महमंडलियाणं अद्धचकिचकहरितित्थयरसोक्खं । अट्ठारसमेत्ताणं सामी लेणाण' भत्तिजुत्ताणं ॥४॥ वररयणमउडधारी सेवयमाणाण वत्ति तह अटुं । देता हवेदि राजा जितसत्त संमरसंघट्टे ॥ ४२
अज्ञानरूप अँधेरेसे आच्छन्न हुए भव्य जीव श्रुतज्ञानरूपी धुमणि अर्थात् सूर्यको किरणोंकी शक्तिसे छह द्रव्य और नौ पदार्थोंको देखें, अर्थात् जानें. ( यही ग्रंथके अवतारका निमित्त है)॥ ३४ ॥
___ इसप्रकार निमित्तका कथन समाप्त हुआ । • त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रन्थके अध्ययनमें, जिनेन्द्रदेवके वचनोंसे उपदिष्ट हेतु, प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे दो प्रकारका है ॥ ३५ ॥
___ प्रत्यक्ष हेतु साक्षात् प्रत्यक्ष और परंपरा प्रत्यक्षके भेदसे दो प्रकारका है। अज्ञानका विनाश ज्ञानरूपी दिवाकरकी उत्पत्ति, देव और मनुष्यादिकोंकेद्वारा निरन्तर कीजानेवाली विविध प्रकारकी अभ्यर्चना अर्थात् पूजा, और प्रत्येक समयमें असंख्यात गुणश्रेणीरूपसे होनेवाली कर्मोंकी निर्जरा, इसे साक्षात् प्रत्यक्षहेतु समझना चाहिये । और शिष्य प्रतिशिष्य आदिके द्वारा निरंतर अनेक प्रकारसे कीजानेवाली पूजाको परंपरा प्रत्यक्षहेतु जानना चाहिये ॥ ३६-३८॥
परोक्ष हेतु भी दो प्रकारका है, एक अभ्युदय सुख और दूसरा मोक्षसुख । सातावेदनीय आदि विविध प्रकारके सुप्रशस्त कर्मों के तीव्र अनुभागके उदयसे प्राप्त हुआ इन्द्र, प्रतीन्द्र, दिगिन्द्र [ लोकपाल ] त्रायस्त्रिंश व सामानिक आदि देवोंका सुख; तथा राजा, अधिराज, महाराज, अर्धमण्डलीक, मण्डलीक, महामण्डलीक, अर्धचक्री [ नारायण-प्रतिनारायण ], चक्रधारी [ चक्रवर्ती ] और तीर्थंकर, इनका सुख अभ्युदयसुख है । जो भक्तियुक्त अठारह प्रकारकी सेनाओंका स्वामी है, उत्कृष्ट रत्नोंके मुकुटको धारण करनेवाला है, सेवकजनोंको वृत्ति [ भूमि आदि ] तथा अर्थ [ धन ] प्रदान करनेवाला है, और समरके संघर्षमें शत्रुओंको जीत चुका है, वह राजा है ॥ ३९-४२॥
१ ब गंथयज्झयणो. २ [ होति ]. ३ [ सुपसत्य. ]. ४ ब तेत्तीससायरपमाण. ५ द ब सामीसेणेण. ६ द वंति दह अद्धं, व वंति दह अटै. संभवपाठ- पं. ८ मंडलियाणं । पं. ९ सेणीण.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org