Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
View full book text
________________
-१. ११३]
पढमो महाधियारो
उवसण्णासण्णो वि य गुणिदो अटेहि होदि णामेण । सण्णासण्णो त्ति तदो दुइदि खंधो पमाणटुं॥ १.३ अट्ठढे गुणिदेहि सण्णासण्णेहिं होदि तुडिरेणू । तित्तियमेत्तहदेहिं तुडिरेणहि पि तसरेणू ॥१०॥ तसरेणू रथरेणू उत्तमभोगावणीर वालग्गं । मज्झिमभोगखिदीए वालं पि जहण्णभोगखिदिवालं ॥१०५ कम्ममहीए वालं लिक्खं जूवं जवं च अंगुलयं ! इगिउत्तरा य भणिदा पुवेहिं अट्ठगुणिदेहि ॥ १०६ तिवियप्पमंगुलं तं उच्छेहपमाणअप्पअंगुलयं । परिभासाणिप्पण्णं होदि हु उदिसेहसूचिअंगुलयं ॥ १०७ तं चिय पंच सयाई अवसप्पिणिपढमभरहचक्किस्स । अंगुलै एक चेव य तं तु पमाणंगुलं णाम ॥ १०८ जस्सि जस्सि काले भरहेरावदमहीसु जे मणुवा । तस्सि तस्सि ताणं अंगुलमादंगुलं णाम ॥ १०९ उस्लेहअंगुलेणं सुराण णरतिरियणारयाणं च । उस्सेहंगुलमाणं चउदेवणिकेदणयराणि ॥ ११. दीवोदहिसेलाणं वेदीण णदीण कुंडजगदीणं । वस्साणच पमाणं होदि पमाणंगुलेणेव ॥ " भिंगारकलसदप्पणवेणुपडहजुगाण सयणसगदाणं । हलमुसलसत्तितोमरसिंहासणबाणणालिअक्खाणं ॥२ चामरदुंदुहिपीढच्छत्ताणं णरणिवासणगराणं । उज्जाणपहुदियाणं संखा आदंगुलं णेया ॥१३
उवसन्नासन्नको भी आठसे गुणित करनेपर सन्नासन्न नामका स्कंध होता है अर्थात् आठ उवसन्नासनोंका एक सन्नासन्न नामका स्कंध होता है। आठसे गुणित सन्नासन्नों अर्थात् आठ सन्नासन्नोंसे एक त्रुटिरेणु, और इतने ही [ आठ ] त्रुटिरेणुओंसे एक त्रसरेणु होता है। इसप्रकार पूर्वपूर्व स्कन्धोंसे आठ आठ गुणे क्रमशः रथरेणु, उत्तम भोगभूमिका बालाग्र, मध्यमभोगभूमिका बालान, जघन्यभोगभूमिका बालान, कर्मभूमिका बालाग्र, लीख, जूं, जौ और अंगुल, ये उत्तरोत्तर स्कंध कहे गये हैं ॥ १०३-१०६॥
अंगुल तीन प्रकारका है- उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल और आत्मांगुल । इनमेंसे जो अंगुल उपर्युक्त परिभाषासे सिद्ध किया गया है, वह उत्सेध सूच्यंगुल है ॥ १०७ ॥
पांचसौ उत्सेधांगुलप्रमाण अवसर्पिणी कालके प्रथम भरत चक्रवर्तीका एक अंगुल होता है, और इसीका नाम प्रमाणांगुल है ॥ १०८॥
जिस जिस कालमें भरत और ऐरावत क्षेत्रमें जो जो मनुष्य हुआ करते हैं, उस उस कालमें उन्हीं मनुष्योंके अंगुलका नाम आत्मांगुल है ॥ १०९॥
___ उत्सेधांगुलसे देव, मनुष्य, तियंच एवं नारकियोंके शरीरकी ऊंचाईका प्रमाण, और चारों प्रकारके देवोंके निवासस्थान व नगरादिका प्रमाण जाना जाता है ॥ ११० ॥
द्वीप, समुद्र, कुलाचल, वेदी, नदी, कुंड या सरोवर जगती और भरतादिक क्षेत्र इन सबका प्रमाण प्रमाणांगुलसे ही हुआ करता है ॥ १११ ॥
झारी, कलश, दर्पण, वेणु, भेरी, युग, शय्या, शकट ( गाडी), हल, मूसल, शक्ति, तोमर, सिंहासन, बाण, नालि, अक्ष, चामर, दुंदुभि, पीठ, छत्र, मनुष्यों के निवासस्थान व नगर और उद्यानादिकोंकी संख्या आत्मांगुलसे समझना चाहिये ॥ ११२-११३ ॥
१ [ अंगुलमेकं ]. २ ब महीस. ३ ब उस्सेहअंगुलो णं. ४ ब "णिकेदणणयराणिं. ५ द ब वंसाणं. ६ [ 'सगडाणं ].
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org