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शरीर को भी तपाना आवश्यक होता है। लक्ष्य तो आत्मा को तपाने का ही है। ठाणाङ्ग सूत्र के १० वें ठाणे में ज्ञान बल, दर्शन बल, तप बल आदि १० बल बतलाये गये हैं । तप बल का इतना माहात्म्य बताया है कि उससे निकाचित कर्म भी क्षय हो जाते हैं।
समवाय ७
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समुद्घात - कालान्तर में उदय में आने वाले वेदनीय आदि कर्म पुद्गलों को उदीरणा के द्वारा उदय में लाकर उनकी सम्यक् प्रकार से प्रबलता पूर्वक निर्जरा करना 'समुद्घात' कहलाता है। समुद्घात सात हैं। इनमें से छद्मस्थ के छह समुद्घात होते हैं ।
प्रश्न - छद्मस्थ किसे कहते हैं ?
उत्तर - "छद्मनि घाति कर्मणि तिष्ठति इति छद्मस्थ: । " ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय मोहनीय और अन्तराय, ये चार घातीकर्म कहलाते हैं । इनका क्षय न हो तब तक जीव छद्मस्थ कहलाता है और इनका क्षय होने पर जीव केवली बन जाता है।
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मूल में अर्थावग्रह के छह भेद दिये हैं । ज्ञान के पांच भेद हैं यथा मति ज्ञान, श्रुत ज्ञान, अवधि ज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान और केवल ज्ञान । मति ज्ञान के कुल ३४१ भेद होते हैं। वे इस प्रकार हैं - अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारों ज्ञान पांच इन्द्रियाँ और छठे मन से होते हैं। अतः ६x४ २४ भेद होते हैं । किन्तु व्यंजनावग्रह, मन और चक्षु के अतिरिक्त चार इन्द्रियों से होता है । ( २४+४ = २८ ) । ये २८ बारह तरह से होते हैं । यथा बहु, अल्प, बहुविध, अल्पविध, क्षिप्र (शीघ्र ), अक्षिप्र, अनिश्रित, निश्रित, असंदिग्ध, संदिग्ध, ध्रुव, अध्रुव । अतः २८x१२ ३३६ । बुद्धि के चार भेद हैं यथा उत्पत्तिया ( औत्पातिकी), वेणइया (वैनयिकी), कम्मिया (कर्मजा ), पारिणामिया (पारिणामिकी) ३३६+४ = ३४० । जाति स्मरण भी मतिज्ञान का ही भेद है। इस प्रकार मतिज्ञान के ये ३४१ भेद होते हैं। मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता ( चिन्तन- विचारणा), अभिनिबोध, ये पांच मतिज्ञान के पर्यायवाची शब्द हैं।
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सातवाँ समवाय
सत्त भट्टाणा पण्णत्ता तंजहा - इहलोग भए परलोग भए आदाण भए अम्हा भए आजीव भए मरण भए असिलोग भए । सत्त समुग्धाया पण्णत्ता तंजहा - वेयणा समुग्धा कसाय समुग्धाए मारणंतिय समुग्धाए वेडव्विय समुग्धाए तेय समुग्धाए आहारग समुग्धाए केवलिसमुग्धाए । समणे भगवं महावीरे सत्त रयणीओ उड्डूं उच्चत्तेणं होत्था | इहेव जंबूद्दीवे दीवे सत्त वासहर पव्वया पण्णत्ता तंजहा
चुल्लहिमवं
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