________________
आहारक शरीर
३८९
शासनेशो महावीरः, सुधर्मा पञ्चमो गणी । केवली चरमो जम्बू स्वाम्यथ प्रभवः प्रभुः । शय्यम्भवो, यशोभद्रः सम्भूति विजयस्तथा।
भद्रबाहुः स्थूलिभद्रः श्रुत केवलिनो हि षट् ॥ अर्थात् - भगवान् महावीर स्वामी, सुधर्मा स्वामी और जम्बू स्वामी, ये तीन पाट तो केवली हुए हैं। इसके बाद १. प्रभव स्वामी २. शय्यम्भव स्वामी ३. यशोभद्रस्वामी ४. सम्भूतिविजयस्वामी ५. भद्रबाहुस्वामी ६. स्थूलिभद्रस्वामी । ये छह श्रुतकेवली अर्थात् चौदह पूर्वधारी हुए हैं। इसके बाद पूर्वो का ज्ञान कम होता चला गया है। यहाँ तक कि भगवान् महावीर के निर्वाण के ९८० वर्ष बाद देवद्धिगणी क्षमाश्रमण को एक पूर्व का ज्ञान था। १००० वर्ष बाद पूर्वो का ज्ञान सर्वथा लुप्त हो गया। अतः अब किसी में आहारक शरीर का पुतला निकालने की.क्षमता नहीं है।
प्रश्न - क्या आहारक शरीर लोक में सदा मिलता है? उत्तर - "आहारगाइ लोए, छम्मासा जा न होति वि कयाइ ।
उक्कोसेणं नियमा, एक्कं समयं जहण्णेणं ॥" अर्थ - आहारक शरीरं का सम्पूर्ण लोक में यदि विरह पड़े तो जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह महीने का विरह पड़ सकता है।
प्रश्न - एक जीव को आहारक लब्धि कितनी बार प्राप्त हो सकती है. ?
उत्तर - एक जीव को एक भव में एक बार और अनेक भवों में चार बार आहारक लब्धि प्राप्त हो सकती है। फिर उस जीव का उसी भव में मोक्ष हो जाता है। जिसको आहारक लब्धि प्राप्त हो वह आहारक शरीर का पुतला निकालता ही है ऐसी नियमा नहीं है। किन्तु उपरोक्त चार प्रयोजन उपस्थित होने पर कोई-कोई लब्धिधारी मुनि आहारक लब्धि का प्रयोग कर पुतला निकालते हैं। लब्धि का प्रयोग करना प्रायश्चित्त का कारण है। इसलिये सभी लब्धिधारी लब्धि का प्रयोग नहीं करते हैं। मन्त्र, जन्त्र, तन्त्र आदि का प्रयोग करना मुनि के लिये प्रायश्चित्त का कारण बनता है।
दिगम्बर सम्प्रदाय की मान्यता है कि आहारक लब्धिधारी मुनि के मस्तक से यह पुतला निकलता है और प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर पुनः मस्तिष्क से ही शरीर में प्रवेश कर जाता है। जब कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय की मान्यता है कि मुनिराज के सर्वाङ्ग से संपूर्ण पुतला निकलता है और सर्वाङ्ग में ही प्रवेश कर जाता है। पन्नवणासूत्र के छत्तीसवें पद में आहारक समुद्घात
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org