Book Title: Samvayang Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 404
________________ आहारक शरीर ३८७ शरीर होता है किन्तु अप्रमत्त संयत समदृष्टि पर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्य के आहारक शरीर नहीं होता है। अहो भगवन्! यदि प्रमत्त संयत समदृष्टि पर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्य के आहारक शरीर होता है तो क्या ऋद्धि प्राप्त प्रमत्त संयत समदृष्टि पर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्य के आहारक शरीर होता है? अथवा अनृद्धिप्राप्त प्रमत्त संयत समदृष्टि पर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्य के आहारक शरीर होता है ? हे गौतम! ऋद्धि प्राप्त प्रमत्त संयत समदृष्टि पर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्य के आहारक शरीर होता है किन्तु अनृद्धिप्राप्त प्रमत्त संयत समदृष्टि पर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्य के आहारक शरीर नहीं होता है। इस तरह इसमें विकल्प करके वचन विभाग करना चाहिए। आहारक शरीर का समचतुरस्त्र संस्थान है। अहो भगवन्! आहारक शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी कही गई है? हे गौतम! जघन्य से एक हाथ में कुछ कम और उत्कृष्ट प्रतिपूर्ण रत्नि यानी पूरी एक हाथ की होती है। विवेचन - प्रश्न - हे भगवन्! आहारक शरीर किसे कहते हैं? उत्तर - हे गौतम! इस आहारक शरीर की लब्धि तो सातवें गुणस्थान में प्राप्त होती है और पुतला निर्गमन और प्रवेश आदि प्रक्रिया छठे गुणस्थान में होती है। इसकी प्राप्ति चौदह पूर्वधारी मुनिराज को ही होती है। जब किसी चौदह पूर्वधारी प्रमत्त संयत ऋद्धि प्राप्त मुनि को ध्यान अवस्था में किसी गहन सूक्ष्म तत्त्व के विषय में कोई शङ्का उत्पन्न हो अथवा कोई वादी आकर प्रश्न पूछे और उसके उत्तर में सन्देह शीलता हो और उस समय उस क्षेत्र में केवली भगवान् न हो तो उस संशय का निवारण करने के लिये अपने शरीर में से एक पुतला निकालते हैं और महाविदेह क्षेत्र में विराजमान तीर्थङ्कर भगवान् के पास भेजते हैं। वह पुतला आहारक लब्धि के बल से निकाला जाता है वह अति विशुद्ध और स्फटिक के समान होता है। वह शुभ पुद्गलों से बना हुआ होने के कारण सुन्दर होता है। प्रशस्त उद्देश्य से बनाया जाने के कारण निरवद्य होता है और अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण अव्याघाती अर्थात् किसी को रोकने वाला या किसी से रुकने वाला नहीं होता है। ऐसा शरीर क्षेत्रान्तर में सर्वज्ञ के निकट पहुँच कर अपने सन्देह का निवारण करता है। यह कार्य केवल अंर्तमुहूर्त में हो जाता है। आहारक पुतले के द्वारा अपना कार्य कर लेने के पश्चात् मुनिराज उसमें से आत्म प्रदेशों को संहृत करके अपने शरीर में समाविष्ट कर लेते हैं। इसी को थोकड़े वाले 'पुतले का शरीर में प्रवेश होना' कहते हैं। लेकिन वास्तव में आहारक वर्गणा के पुद्गल बाहर ही विशीर्ण हो जाते हैं। आहारक वर्गणा के पुद्गलों का शरीर में प्रवेश नहीं समझना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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