Book Title: Samvayang Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 431
________________ ४१४ समवायांग सूत्र यानी तेला करके दीक्षा ली थी और बाकी बीस तीर्थङ्करों ने षष्ठभक्त यानी बेला करके दीक्षा ली थी।। २६ ॥ विवेचन - ज्ञाता सूत्र के आठवें अध्ययन में बतलाया गया है कि मल्लिनाथ भगवान् .. आभ्यन्तर परिषद् रूप तीन सौ स्त्रियों के साथ और बाहरी परिषद् रूप तीन सौ पुरुषों के साथ दीक्षित हुए थे । यहाँ पर तीन सौ के साथ दीक्षित होने का कथन किया है सो यहाँ पर स्त्री परिषद् को गौण करके केवल पुरुष परिषद् को ही लिया गया है। यह विवक्षा विशेष है अत: परस्पर किसी प्रकार का कोई विरोध नहीं है। ____ तीर्थङ्कर दीक्षा लेते समय सब वस्त्र छोड़ देते हैं तब शक्रेन्द्र उनके कन्धे पर एक देव दूष्य वस्त्र डाल देता है वह वस्त्र तेरह महीने से कुछ अधिक समय तक उनके कन्धे पर पड़ा रहता है। तीर्थङ्कर भगवान् उस वस्त्र को शीत निवारण आदि किसी काम में नहीं लेते हैं और न किसी को दान रूप में देते हैं। किसी ग्रन्थ में भगवान् महावीर स्वामी के लिए ऐसा लिख दिया है कि - भगवान् महावीर स्वामी ने उस देवदूष्य को फाड़ कर आधा देवदूष्य ब्राह्मण को दान में दे दिया था किन्तु ऐसा लिखना आगम से विपरीत है। सब तीर्थङ्करों की तरह भगवान् महावीर स्वामी के कन्धे पर भी वह वस्त्र तेरह महीने से कुछ अधिक समय तक पड़ा रहा था। फिर स्वतः नीचे गिर पड़ा। उसे भगवान् ने वापिस उठाया नहीं। ऐसा आचाराङ्ग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के नववें अध्ययन के प्रथम उद्देशक की चौथी गाथा में इस प्रकार बतलाया है। संवच्छरं साहियं मासं, जंण रिक्कासि वत्थगं भगवं। अचेलए तओ चाई, तं वोसिरिज वत्थमणगारे॥ अर्थ - एक महीने सहित एक वर्ष से कुछ अधिक अर्थात् तेरह महीने से कुछ अधिक वह वस्त्र भगवान् के कन्धे पर पड़ा रहा फिर नीचे गिर पड़ा तब भगवान् ने उसे वापिस उठाया नहीं और उसे वोसिरा दिया, तब से भगवान् सर्वथा अचेलक बन गये। प्रश्न - तीर्थङ्कर भगवान् सर्वथा वस्त्र रहित होते हैं तो क्या वे अशोभनिक नहीं लगते हैं? उत्तर - तीर्थङ्कर भगवान् सर्वथा वस्त्र रहित होते हुए भी अशोभनिक नहीं लगते हैं। यह उनका अतिशय है। . प्रश्न - इस समवायाङ्ग सूत्र में तीर्थङ्कर भगवान् के चौतीस अतिशय ही बतलाए गये हैं। फिर यह अतिशय अलग से कैसे माना जाय? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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