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चौबीस तीर्थंकरों की शिविकाओं के नाम
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१४. पंचवर्णा, १५. सागरदत्ता, १६. नागदत्ता, १७. अभयंकरा, १८. निवृत्तिकरा, १९. मनोरमा, २०. मनोहरा, २१. देवकुरा, २२. उत्तरकुरा, २३. विशाला, २४. चन्द्रप्रभा। सम्पूर्ण जगत् के हितकारी सब तीर्थङ्करों की ये सब ऋतुओं में सुख देने वाली छाया युक्त यानी आतापना रहित पालकियाँ थीं ।। १८॥
इन पालकियों को पहले जिनके रोम रोम हर्षित हो रहे हैं ऐसे मनुष्य उठाते हैं और पीछे असुरेन्द्र, सुरेन्द्र और नागेन्द्र उठाते हैं।। १९॥
चञ्चल और चपल कुण्डलों को धारण करने वाले और स्वेच्छापूर्वक वैक्रिय किये हुए आभूषणों को धारण करने वाले सुरेन्द्र और असुरेन्द्र सुर और असुरों द्वारा वन्दित जिनेश्वरों की पालकियों को उठाते हैं।। २०॥ ___इन शिविकाओं को पूर्व की ओर वैमानिक देव उठाकर चलते हैं। फिर नागकुमार देवता दाहिनी तरफ चलते हैं। असुरकुमार जाति के देव पीछे की तरफ चलते हैं और गरुड़ ध्वजा सुवर्णकुमारादि देव उत्तर की तरफ यानी बांई तरफ चलते हैं।। २१ ॥
ऋषभदेव भगवान् ने विनीता (अयोध्या) नगरी में दीक्षा ली थी और अरिष्टनेमि भगवान् ने द्वारिका नगरी में दीक्षा ली थी। बाकी २२ तीर्थङ्करों ने अपनी अपनी जन्मभूमि में दीक्षा ली थी।॥ २२॥ . - ऋषभदेव भगवान् का जन्म इक्ष्वाकु भूमि (युगलिक भूमि) और अरिष्टनेमि भगवान् का जन्म शौर्यपुर में हुआ था।
सभी चौबीस ही तीर्थङ्कर इन्द्र द्वारा दिये गये एक देवदूष्य वस्त्र के साथ निकले थे यानी दीक्षित हुए थे। तीर्थङ्कर भगवान् अन्यलिङ्ग यानी स्थविर कल्पी आदि लिङ्ग में, गृहस्थ लिङ्ग में और कुलिंग में नहीं होते हैं किन्तु तीर्थङ्कर लिङ्ग में ही होते हैं।। २३॥ .
श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अकेले दीक्षा ली थी। भगवान् पार्श्वनाथ ने और भगवान् मल्लिनाथ ने तीन तीन सौ व्यक्तियों के साथ दीक्षा ली थी। भगवान् वासुपूज्य स्वामी ने छह सौ पुरुषों के साथ दीक्षा ली थी। उग्रकुल और भोगकुल में उत्पन्न हुए चार हजार राजाओं और क्षत्रियों के साथ ऋषभदेव भगवान् ने दीक्षा ली थी और शेष १९ तीर्थङ्करों ने एक एक हजार पुरुषों के साथ दीक्षा ली थी।। २४-२५ ॥
सुमतिनाथ भगवान् ने नित्य भक्त से दीक्षा ली अर्थात् दीक्षा लेते समय उन्होंने कुछ भी तपस्या नहीं की थी, नित्य भोजन करते थे और वासुपूज्य भगवान् ने चतुर्थभक्त यानी उपवास करके दीक्षा ली थी। पार्श्वनाथ भगवान् और मल्लिनाथ भगवान् ने अष्टम भक्त
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