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समवसरण पद
इन तीनों, स्त्री वेद, पुरुष वेद, नपुंसक वेद का स्वरूप समझाने के लिए टीकाकार ने एक गाथा दी है वह इस प्रकार है
पुरिसित्थि तदुभयं पड़, अहिलासो जव्वसा हवइ सो उ । त्थीनरनपुंवेउदओ, फुंफुमतणनगरदाहसमो ॥
अर्थ पुरुष को स्त्री की अभिलाषा और स्त्री को पुरुष की अभिलाषा तथा स्त्री-पुरुष दोनों की अभिलाषा होना क्रमशः स्त्री वेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद कहलाता है। इन तीनों.. का स्वरूप इस प्रकार है - जिस प्रकार घास फूस की अग्नि जल्दी जलती है और जल्दी बुझ भी जाती है, इसी प्रकार पुरुष वेद का समझना चाहिए । जिस प्रकार करीष ( छाणा - सूखा गोबर) अन्दर ही अन्दर जलता रहता है, शीघ्र बुझता नहीं है, स्त्री वेद का भी ऐसा ही स्वरूप है। इसको फुंफुम की अग्नि कहते हैं। नपुंसक वेद को नगर दाह की उपमा दी है। नगर दाह जल्दी शान्त नहीं होता है। इसी तरह नपुंसक वेद भी जल्दी शान्त नहीं होता है।
समवसरण पद
. तेणं कालेणं तेणं समएणं कप्पस्स समोसरणं णेयव्वं जाव गणहरा सावच्चा णिरवच्चा वोच्छिण्णा ।
कठिन शब्दार्थ सावच्चा
निरपत्य-शिष्य
सापत्य - शिष्य सहित, णिरवच्चा रहित, वोच्छिण्णा - व्युच्छिन्न- सिद्ध हो गये ।
भावार्थ - उस काल उस समय में-कल्प से लेकर समवसरण तक यावत् सापत्य और निरपत्य गणधर देव व्युच्छिन्न हो गये अर्थात् सिद्ध हो गये ।
विवेचन - इस अवसर्पिणी काल के दुःषम - सुषमा नामक चौथे आरे अन्त में ब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी इस भारत भूमि पर विचरण कर रहे थे । उस समय में 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' से लेकर समवसरण तक का सारा अधिकार यहाँ कह देना चाहिए । इस विषय में टीकाकार इस प्रकार कहते हैं -
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'कप्पस्स समोसरणं नेयव्वं' ति इहावसरे कल्पभाष्यक्रमेण समवसरणवक्तव्यता अध्येया, सा चाउश्यकोक्ताया न व्यतिरिच्यते, वाचनान्तरे तु पर्युषणाकल्पोक्तक्रमेणेत्यभिहितं, कियद्दूरमित्याह- 'जाव गणे' त्यादि, तत्र गणधरः पञ्चमः सुधर्माख्यः सापत्यः शेषा निरपत्याःअविद्यमानशिष्यसन्ततय इत्यर्थः 'वोच्छिण्णा' त्ति सिद्धा इति ।
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