Book Title: Samvayang Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 427
________________ ४१० समवायांग सूत्र १७. कुन्थुनाथ, १८. अरनाथ, १९. मल्लिनाथ, २०. मुनिसुव्रत, २१. नमिनाथ, २२. नेमिनाथ, २३. पार्श्वनाथ और २४. वर्द्धमान (महावीरस्वामी) । ये चौबीस तीर्थङ्कर हुए हैं। . विवेचन - प्रश्न - अहो भगवन् ! तीर्थङ्कर किसको कहते हैं? . उत्तर - 'तीर्थं करोति इति तीर्थङ्करः।' - जो तीर्थ की स्थापना करे उसे तीर्थङ्कर कहते हैं। प्रश्न - अहो भगवन्! संघ तीर्थ है या तीर्थङ्कर तीर्थ है ? उत्तर - भगवती सूत्र के २० वें शतक के आठवें उद्देशे सू० ६८१ में यही प्रश्न गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर स्वामी से पूछा है। वह इस प्रकार है - तित्थं भंते! तित्थं, तित्थगरे तित्थं ? गोयमा! अरहा ताव नियमं तित्थगरे, तित्थं पुण चाउवण्णाइण्णो समण संघो तंजहा - समणा, समणीओ, सावया सावियाओ य। प्रश्न - हे भगवन्! तीर्थ (संघ) तीर्थ है या तीर्थङ्कर तीर्थ है? उत्तर - हे गौतम! अरहन्त-तीर्थङ्कर नियम पूर्वक तीर्थ के प्रवर्तक हैं (किन्तु तीर्थ नहीं हैं)। चार वर्ण वाला श्रमण प्रधान संघ ही तीर्थ है, जैसे कि साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका। साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप उक्त संघ ज्ञान, दर्शन, चारित्र का आधार है, आत्मा के अज्ञान और मिथ्यात्व को मिटा देता है एवं संसार सागर के पार पहुंचाता है इसलिये इसे तीर्थ कहा है। यह भावतीर्थ है। द्रव्य तीर्थ का आश्रय लेने से तृषा की शान्ति होती है, दाह का उपशम होता है एवं मल का नाश होता है। भावतीर्थ की शरण लेने वाले को भी तृष्णा का नाश, क्रोधाग्नि की शान्ति एवं कर्म मल का नाश- इन तीन गुणों की प्राप्ति होती है। ___ उपरोक्त प्रश्नोत्तरों से यह स्पष्ट है कि - किसी भी पर्वत यथा अष्टापद पर्वत, शत्रुजय, सम्मेद शिखर, पालीतणा आदि तथा शत्रुजा नदी, गंगा नदी, यमुना नदी आदि किसी को भी सिद्धान्त में तीर्थ नहीं कहा है। इनकी पूजा अर्चना करना, वन्दना करना, यात्रा करना आदि कोई भी कार्य आत्मा का कल्याण करने वाला नहीं है। बल्कि गमनागमनादि करना, मूर्ति को स्नान कराना, स्वयं स्नान करना आदि कर्म बन्ध का कारण है। अतः आत्मा का कल्याण चाहने वाले मुमुक्षु आत्माओं का कर्तव्य है कि उपरोक्त साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप भावतीर्थ की सेवा भक्ति आदि करें और त्याग प्रत्याख्यान को जीवन में उतारे, इससे आत्मा का कल्याण सधता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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