Book Title: Samvayang Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 412
________________ उपपात और उद्वर्तन का वर्णन अहो भगवन्! नैरयिक जीवों के आयुबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? हे गौतम! छह प्रकार का कहा गया है जैसे कि जातिनाम निधत्तायु, गतिनाम निधत्तायु, स्थितिनाम निधत्तायु, प्रदेशनाम निधत्तायु, अनुभाग नाम निधत्तायु, अवगाहना नाम निधत्तायु। इसी प्रकार वैमानिकों तक २४ ही दण्डक के जीवों के छह प्रकार का आयुबन्ध होता है । विवेचन - प्रत्येक प्राणी जिस समय आगामी भव की आयु का बन्ध करता है, उसी समय उस गति के योग्य जातिनाम कर्म का बन्ध करता है, गतिनाम कर्म का भी बन्ध करता है । इसी प्रकार उसके योग्य स्थिति, प्रदेश, अनुभाग और अवगाहना ( शरीर नामकर्म) का भी बन्ध करता है । जैसे - कोई जीव इस समय देवायु का बन्ध कर रहा है तो वह इसी समय उसके साथ पञ्चेन्द्रिय जाति नामकर्म का भी बन्ध कर रहा है। देवगति नाम कर्म का भी बन्ध कर रहा है, आयु की नियत कालवाली स्थिति का भी बन्ध कर रहा है। उसके नियत परिमाण वाले कर्म प्रदेशों का भी बन्ध कर रहा है, नियतं रस - विपाक या तीव्र मन्द फल देने वाले अनुभाग का भी बन्ध कर रहा है और देवगति में होने वाले वैक्रियिक अवगाहना अर्थात् शरीर का भी बन्ध कर रहा है। इस सब अपेक्षाओं से आयुकर्म का बन्ध छह प्रकार का कहा गया है। उपपात और उद्वर्तन का वर्णन रियगई णं भंते! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणणेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ते । एवं तिरियगई, मणुस्सगई, देवगई। सिद्धिगई णं भंते! केवइयं कालं विरहिया सिज्झणयाए पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणणेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासे । एवं सिद्धिवज्जा उव्वट्टणा ।। कठिन शब्दार्थ - विरहिया - विरह, उववाएणं - उपपात - उत्पन्न होने संबंधी । भावार्थ - हे भगवन् ! नरक गति में उत्पन्न होने सम्बन्धी विरह कितने काल का कहा गया है ? हे गौतम! जघन्य एक समय, उत्कृष्ट बारह मुहूर्त्त का विरह काल कहा गया है। इसी तरह तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति का विरह काल समझना चाहिए । अहो भगवन्! सिद्ध होने की अपेक्षा से सिद्धिगति का विरह कितने काल का कहा गया है ? हे गौतम! जघन्य से एक समय का और उत्कृष्ट छह महीने का कहा गया है। जिस तरह उपपात विरह कहा है, उसी तरह च्यवन विरह भी जान लेना चाहिए अर्थात् चारों गतियों में च्यवन विरह जघन्य एक समय और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त्त का होता है किन्तु सिद्धिगति में Jain Education International ३९५ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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