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समवायांग सूत्र
संघयणी, गब्भवक्कंतिय मणुस्सा छव्विहे संघयणी पण्णत्ता। जहा असुरकुमारा तहा वाणमंतर, जोइसिय, वेमाणिया य।
कठिन शब्दार्थ - संघयणे - संहनन, वइरोसभ णाराय - वज्र ऋषभ नाराच, छेवट्ट - सेवात, असंघयणी - असंहननी-संहनन रहित, अट्ठि - हड्डियाँ, छिरा - नसें, बहारू - स्नायु। .
भावार्थ - हे भगवन् ! संहनन कितने कहे गये हैं ? हे गौतम! संहनन छह प्रकार के कहे गये हैं, जैसे कि - वज्रऋषभनाराच संहनन, ऋषभनाराच संहनन, नाराच संहनन, अर्द्धनाराच संहनन, कीलिका संहनन, सेवात संहनन। हे भगवन्! नैरयिक जीवों के कौनसा संहनन होता है? हे गौतम! छह संहननों में से कोई भी संहनन नहीं होता है क्योंकि नैरयिक जीवों के न हड्डियाँ होती हैं, न नसें होती है और न स्नायु होती है। जो पुद्गल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अनादेय, अशुभ, अमनोज्ञ, अमनोरम मन को अप्रिय होते हैं वे पुद्गल उन नैरयिक जीवों के हड्डी आदि से रहित शरीर रूप से परिणमते हैं।
हे भगवन्! असुरकुमार देवों के कौन सा संहनन होता है ? हे गौतम! उपरोक्त छह संहननों में से कोई भी संहनन नहीं होता है क्योंकि असुरकुमार देवों के न हड्डियाँ होती हैं, न नसें होती हैं और न स्नायु होती है। जो पुद्गल इष्ट, कान्त, प्रिय, आदेय, शुभ, मनोज्ञ, मनोरम मन को प्रिय होते हैं वे पुद्गल उन असुरकुमार देवों के हड्डी आदि से रहित शरीर रूप . से परिणमते हैं। इसी प्रकार स्तनित कुमारों तक कह देना चाहिए। ____ हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के कौन सा संहनन होता है? हे गौतम! सेवार्त्त संहनन होता है। इस तरह सम्मूर्छिम पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च तक कह देना चाहिए। गर्भज तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय के छहों प्रकार के संहनन होते हैं। सम्मूर्छिम मनुष्य के सेवार्त संहनन होता है। गर्भज मनुष्यों के छहों प्रकार के संहनन होते हैं। जिस प्रकार असुरकुमार देवों का कहा गया है, उसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों का भी कह देना चाहिए।
विवेचन - शरीर के भीतर हड़ियाँ आदि के बन्धन विशेष को संहनन कहते हैं। उसके छह भेद प्रस्तुत सूत्र में बताये गये हैं।
१. वज्र ऋषभ नाराच संहनन - वज्र का अर्थ कीलिका है, ऋषभ का अर्थ पट्ट है और मर्कट स्थानीय दोनों पाश्वों की हड्डी को नाराच कहते हैं। जिस शरीर की दोनों पार्श्ववर्ती हड्डियाँ पट्ट से बन्धी हों और बीच में कीली लगी हुई हो, उसे वज्रऋषभनाराच संहनन कहते हैं।
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