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समवायांग सूत्र
मानते हैं। इस तरह से पूर्वापर गिनने से इन सात परिकर्मों के ८३ भेद हो जाते हैं ऐसा कहा गया है। यह परिकर्म का कथन हुआ। ___ विवेचन - परिकर्म के सात भेद बतलाये गये हैं। उनमें से सिद्ध श्रेणिका परिकर्म और मनुष्य श्रेणिका परिकर्म के चौदह-चौदह भेद ऊपर बतला दिये हैं। पृष्ट श्रेणिका आदि बाकी पांच परिकर्म के ग्यारह-ग्यारह भेद होते हैं। उनमें से तीन भेद पहले के नहीं होते हैं और ग्यारहवाँ भेद अपने अपने नाम के अनुसार होता है।
टीकाकार लिखते हैं कि - परिकर्म सूत्र और अर्थ दोनों के रूप में विच्छिन्न हो गये हैं। इन सातों परिकर्मों में से पहले के छह परिकर्म स्व सामयिक (स्व सिद्धान्त) के अनुसार होते हैं तथा गोशालक द्वारा प्रवर्तित आजीविक मत के सहित सात भेद कहे जाते हैं। इन सात भेदों के उत्तर भेद ८३ होते हैं। . इन परिकर्मों का किन नयों से अध्ययन किया जाता है। यह बात बतलाई जाती है। इनमें से छह पहले के परिकर्म चार नय वाले हैं तथा सातवाँ परिकर्म त्रैराशिक है। ___ जैन सिद्धान्त के अनुसार नय के दो भेद हैं - द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय। द्रव्यार्थिक नय के दो भेद हैं - संग्रह और व्यवहार तथा पर्यायार्थिक नय के भी दो भेद हैं - ऋजु सूत्र और शब्द ।
पहले के छह परिकर्म जैन सिद्धान्त को बतलाते हैं। इसलिये इनका अध्ययन इन चार नयों से किया जाता है।
प्रमाण नय तत्त्वालोक आदि में सात नय बतलाये गये हैं। परन्तु यहाँ सामान्य ग्राही नैगम नय को संग्रह नय में और विशेष ग्राही नैगम नय को व्यवहार नय में सम्मिलित कर दिया गया है। समभिरूढ और एवंभूत नय को शब्द नय में समाविष्ट कर दिया गया है। अतएव यहाँ संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द ये चार नय ही कहे गये हैं।
गोशालक का मत त्रैराशिक कहलाता था। क्योंकि वह प्रत्येक पदा की तीन राशियाँ बताता था। जैसे कि जीव राशि, अजीव राशि और मिश्र राशि। उसके मतानुसार नय की भी तीन राशियाँ थी। द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक और मिश्र (द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक)। सातवें परिकर्म का अध्ययन नय की इन तीन राशियों से किया जाता था। क्योंकि सातवाँ परिकर्म गोशालक मत बतलाता था।
दिगम्बर परम्परा के शास्त्रों (ग्रन्थों) के अनुसार परिकर्म में गणित के करण सूत्रों का वर्णन किया गया है। इसके वहाँ पांच भेद बतलाए गये हैं - चन्द्र प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति,
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