Book Title: Samvayang Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 383
________________ ३६६ समवायांग सूत्र १६. पडिरूवा - प्रतिरूप = प्रत्येक व्यक्ति के लिये रमणीय। प्रश्न - भवनपति देवों के दस भेदों को 'कुमार' शब्द से विशेषित क्यों किया है? उत्तर - जिस प्रकार कुमार (बालक) क्रीड़ा, खेलकूद आदि को पसन्द करते हैं, उसी प्रकार ये भवनपति देव भी क्रीड़ा में रत रहते हैं तथा सदा जवान की तरह जवान (युवा) बने रहते हैं। इसलिये इनको कुमार कहते हैं। प्रश्न - भवनों और आवासों में क्या फरक होता है? उत्तर - भवन बाहर से गोल और अन्दर से चतुष्कोण होते हैं। उनके नीचे का भाग कमल की कर्णिका के आकार वाला होता है तथा शरीर परिमाण बड़े मणि तथा रत्नों के प्रकाश से चारों दिशाओं को प्रकाशित करने वाले आवास (मण्डप) कहलाते हैं। भवनपति (भवनवासी) देव भवनों तथा आवासों दोनों में रहते हैं। ___प्रसङ्गोपात यहाँ एक प्रश्न पैदा होता है कि - जीवाभिगम सूत्र की प्रथम प्रतिपत्ति में चौबीस दण्डक का वर्णन है यथा - णेरइया असुराई, पुढवाई बेइंदियादओ चेव । पंचिंदिय-तिय-णरा, वंतर-जोइसिय-वेमाणी ॥ अर्थ - सात नरक का एक दण्डक अर्थात् पहला दण्डक, दूसरे से लेकर ग्यारहवें तक दस, भवनपति के दस दण्डक, बारहवाँ पृथ्वीकाय का, तेरहवाँ अपकाय का, चौदहवाँ तेउकाय का, पंद्रहवाँ वायुकाय का, सोलहवाँ वनस्पति काय का, सतरहवाँ बेइन्द्रिय का, अठारहवाँ तेइन्द्रिय का, उन्नीसवाँ चउरिन्द्रिय का, बीसवाँ तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय का, इक्कीसवाँ मनुष्य का, बाईसवाँ वाणव्यन्तर का, तेइसवाँ ज्योतिषी का, चौबीसवाँ वैमानिक का । यहाँ पर यह शङ्का उत्पन्न होती है कि - जिस प्रकार भवनपति देवों के दस दण्डक लिये गये हैं तो सात नरकों के भी सात दण्डक लेने चाहिए, उनका एक ही दण्डक क्यों लिया गया। ... शङ्का उचित है। उसका समाधान यह है कि - भवनपति देव तो पहली नरक के तीसरे अन्तर से लेकर बारहवें अन्तर में रहते हैं। इन के बीच में चौथे प्रस्तट में नैरयिक जीव रहते हैं। फिर चौथे अन्तर में नागकुमार भवनपति देव रहते हैं। फिर पांचवें प्रस्तट में पहली नरक के नैरयिक और छठे अन्तर में स्वर्णकुमार भवनपति देव रहते हैं। इस प्रकार इन भवनपति देवों के बीच बीच में प्रथम नरक के नैरयिकों का निवास स्थान आ गया है। इसलिये दस भवनपतियों के दस दण्डक लिये गये हैं। पहली नरक और दूसरी नरक तथा दूसरी और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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