Book Title: Samvayang Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 395
________________ ३७८ समवायांग सूत्र . वसति (उपाश्रय) आदि को ग्रहण करते हुए साधु साध्वियों को उक्त पांच स्वामियों की यथायोग्य आज्ञा प्राप्त करनी चाहिए। . उक्त पांच स्वामियों में से पहले पहले के देवेन्द्र अवग्रहादि गौण हैं और पीछे के राजावग्रहादि मुख्य हैं। इसलिये पहले देवेन्द्रादि की आज्ञा प्राप्त होने पर भी पिछले राजा आदि की आज्ञा प्राप्त न हो तो देवेन्द्रादि की आज्ञा बाधित हो जाती है। जैसे देवेन्द्र से अवग्रह प्राप्त होने पर यदि राजा अनुमति नहीं दे तो साधु साध्वी देवेन्द्र से अनुज्ञापित वसति आदि उपभोग नहीं कर सकता । इसी प्रकार किसी वसति आदि के लिये राजा की आज्ञा प्राप्त हो जाय पर गृहपति की आज्ञा न हो तो भी साधु साध्वी उसका उपभोग नहीं कर सकता। इसी प्रकार गृहपति की आज्ञा सागारी से और सागारी की आज्ञा साधर्मिक से बाधित समझी जाती है। (आचाराङ्ग श्रुत स्कन्ध २ अवग्रह प्रतिमा अध्ययन) (भगवती शतक १२ उद्देशा २) नैरयिक आदि की स्थिति का वर्णन णेरइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णेणं दसवाससहस्साइं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । अपजत्तगाणं णेरइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं। पज्जत्तगाणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई उक्कोसेणं तेतीसं सागरोवमाइं अंतोमुहत्तूणाई । इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए एवं जाव विजय वेजयंत जयंत अपराजियाणं देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णणं इकतीसं सागरोवमाइं उक्कोसेणं तेतीसं सागरोवमाइं । सव्वढे अजहण्णमणुक्कोसेणं तेतीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता ॥ नोट - यहाँ कुछ प्रतियों के मूल पाठ में विजय वैजयन्त जयन्त अपराजित इन चार अनुत्तर विमानवासी देवों की जघन्य स्थिति ३२ सागरोपम की बताई है वह लिपि प्रमाद ही संभव है। होना यह चाहिये कि - जघन्य ३१ उत्कृष्ट ३३ सागरोपम। क्योंकि दूसरी जगह ऐसा ही बतलाया गया है। भगवती सूत्र के ग्यारहवें शतक के बारहवें उद्देशक में बतलाया गया है कि देवों में स्थिति की अपेक्षा दस हजार वर्ष से लेकर ३३ सागरोपम तक के सभी स्थिति स्थान पाये जाते हैं। यदि चार अनुत्तर विमानों की जघन्य स्थिति ३२ सागरोपम मानी जाय तो इकतीस से बत्तीस सागरोपम तक के स्थिति स्थान शून्य मानने पड़ेंगे जो कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458