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समवायांग सूत्र
प्रियधर्मी और दृढ़धर्मी था। उसने श्रावक की ५ वीं पडिमा का १०० बार पालन किया था। फिर एक हजार आठ १००८ महाजन वणिकों के साथ बीसवें तीर्थङ्कर मुनिसुव्रत स्वामी के पास दीक्षा लेकर बहुत वर्षों तक संयम का पालन किया। वहाँ से काल धर्म को प्राप्त कर पहले देवलोक का इन्द्र शक्रेन्द्र बना । इस जम्बूद्वीप में ताम्रलिप्ती नामकी नगरी थी। वहाँ तामली तापस बाल तपस्या करता था। ६० हजार वर्ष तक बेले-बेले की तपस्या की थी। पारणे में शुद्ध ओदन (चावल) मात्र ग्रहण करता था। उसको भी २१ बार धोकर उसका आहार करता था। विकट बाल तपस्या करके दूसरे देवलोक का ईशानेन्द्र बना है। तीसरे देवलोक के इन्द्र सनत्कुमार का वर्णन भगवती सूत्र के तीसरे शतक के पहले उद्देशक में आया है। ये सभी भवसिद्धिक एवं एक भवावतारी हैं। ऐसा खुलासा हो चुका है। इस से अनुमान और संभावना यही है कि - ६४ ही इन्द्र भवसिद्धिक और एक भवावतारी हैं।
प्रश्न - हे भगवन्! शक्रेन्द्र को 'सयक्कर' (शतक्रतु) क्यों कहते हैं ? उत्तर - 'शतक्रतु' शब्द का अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है -
"शतं क्रतूनां-प्रतिमानाम्-अभिग्रह-विशेषाणां श्रमणोपासक पञ्चमप्रतिमारूपाणां वा यस्याऽसौ शतक्रतुः। इदंहि कार्तिक श्रेष्ठि भवापेक्षया, तथाहि पृथिवीभूषणनगरे प्रजापालो नाम राजा कार्तिक नामा श्रेष्ठी। तेन श्राद्धप्रतिमानां शतं कृतं ततः शतक्रतुरिति ख्यातिः ।"
अर्थ - कार्तिक सेठ ने श्रावक की पांचवीं प्रतिमा का १०० बार पालन किया था। फिर दीक्षा लेकर काल धर्म को प्राप्त कर पहले देवलोक का इन्द्र बना है। इसलिये पूर्वभव की अपेक्षा इस इन्द्र के 'शतक्रतु' विशेषण लगता है। यह शतक्रतु विशेषण इसी शक्रेन्द्र के लिये लगता है। दूसरों के लिये नहीं।
प्रश्न - हे भगवन् ! शक्रेन्द्र के लिये 'सहस्सक्ख' (सहस्राक्ष) यह विशेषण क्यों लगता है? उत्तर - टीकाकार ने इस शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है -
"सहस्रमणां यस्यासौ सहस्राक्षः। शके, इन्द्रे, इन्द्रस्य हि किल मन्त्रिणां पञ्च शतानि सन्ति तदीयानां चाक्ष्णांमिन्द्रप्रयोजने व्यावृत्ततया इन्द्रसम्बन्धित्वेन विवक्षणात् सहस्राक्षत्वमिन्द्रस्य।"
अर्थ - शक्रेन्द्र के पांच सौ मंत्री हैं। उनकी एक हजार आंखें हैं। वे सब आंखें इन्द्र का हित देखने और करने रूप प्रयोजन में लगी रहती हैं। इसलिये वे सब आंखें इन्द्र की कहलाती हैं। इसलिये इन्द्र को सहस्राक्ष (एक हजार आंखों वाला) कहते हैं।
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