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समवायांग सूत्र
चतुरस्र - चौकोण हैं। जिस तरह भवनपति देवों के भवनों का वर्णन कहा गया है उसी तरह इन वाणव्यन्तर देवों के आवासों का भी वर्णन जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि ये पताकाओं की माला से व्याप्त हैं। ये आवास सुरम्य प्रासादीय यानी मन को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय यानी देखने योग्य, अभिरूप यानी कमनीय और प्रतिरूप यानी प्रत्येक दर्शक के. मन लुभाने वाले हैं।
विवेचन - जीवों के पहले दो भेद कहे गये हैं त्रस और स्थावर । जिन जीवों के स्थावर नाम कर्म का उदय है उन्हें स्थावर कहते हैं । उनकी काय अर्थात् राशि को स्थावर काय कहते हैं। उसके पांच भेद हैं- पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय । ठाणाङ्ग सूत्र के पांचवें ठाणे में इनके पांच अधिपति (स्वामी देव) कहे हैं। क्रमशः उनके नाम इस प्रकार है - इंदे (इन्द्र) स्थावर काय, बंभे (ब्रह्म) स्थावर काय, सिप्पे (शिल्प) स्थावर काय, संमई (सम्मति) स्थावर काय, पायावच्चे ( प्राजापत्य) स्थावर काय ।
उत्तराध्ययन सूत्र के ३६ वें अध्ययन में तेउकाय और वायुकाय को गति की अपेक्षा गतित्रस कहा है किन्तु हैं वे स्थावर काय ही । इनका विस्तृत विवेचन जीवाभिगम सूत्र में है।
बेइद्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय, सम्मूच्छिम मनुष्य और गर्भज मनुष्य इन सब का वर्णन भी जीवाभिगम सूत्र से जान लेना चाहिए।
'वाणमंतर' शब्द का अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार - किया है
३६८
*IIIIIIIII+II+K
"वनानाम् अन्तराणि वनान्तराणि तेषु भवा वानमन्तराः । "
अर्थ - वनों के बीच-बीच में जिनके भवन हैं उन्हें वाणव्यन्तर कहते हैं । इनका दूसरा नाम 'व्यन्तर' भी है। जिसका अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है
" विगतं अन्तरं मनुष्येभ्यो येषां ते व्यन्तराः, तथाहि मनुष्यान् अपि चक्रवर्तिवासुदेव प्रभृतीन्, भृत्यवत् उपचरन्ति केचित् व्यन्तरा इति मनुष्येभ्यो विगतान्तराः, यदि वा- विविधं अन्तरं शैलान्तरं, कन्दरान्तरं, वनान्तरं वा आश्रयरूपं येषां ते व्यन्तराः ।"
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अर्थ - मनुष्यों से जिनका भेद ( पृथक्पना ) नहीं है, उन्हें व्यन्तर कहते हैं क्योंकि कितने ही व्यन्तर देव महान् पुण्यशाली चक्रवर्ती वासुदेव आदि मनुष्यों की सेवा नौकरों की तरह किया करते हैं अथवा व्यन्तर देवों के भवन, नगर और आवास रूप निवास स्थान विविध प्रकार के होते हैं तथा पहाड़ों और गुफाओं के अन्तरों में तथा वनों के अन्तरों में ये वसते हैं इसलिये भी इन्हें व्यन्तर देव कहते हैं । व्यन्तर देवों के आवास तीनों लोकों में हैं। सलिलावती
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