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पृथ्वीकाय से लेकर वाणव्यन्तर देवों तक का वर्णन
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तीसरी, इस प्रकार सातों नरकों के बीच में कोई पञ्चेन्द्रिय जीवों का निवास स्थान नहीं हैं। किन्तु सातों नरक संलग्न हैं। इसलिये सातों नरक का एक ही दण्डक लिया गया है। दूसरा कारण यह भी है कि सातों नरक के नैरयिकों के शरीर का वर्ण एक काला (कृष्ण, कृष्णतर, कृष्णतम) ही है। किन्तु दस भवनपति देवों के शरीर का वर्ण, वस्त्रों का वर्ण, मुकुटों का चिह्न आदि अनेक बातों की भिन्नता है इसलिये भी उनके दण्डक अलग अलग लिये गये हैं। पृथ्वीकाय से लेकर वाणव्यन्तर देवों तक का वर्णन
केवइया णं भंते! पुढवीकाइयावासा पण्णत्ता? गोयमा! असंखेज्जा पुढवीकाइयावासा पण्णत्ता। एवं जाव मणुस्सत्ति। केवइया णं भंते! वाणमंतरावासा पण्णत्ता? गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्स बाहल्लस्स उवरि एगं जोयणसयं ओगाहित्ता हेट्ठा चेगं जोयणसयं वज्जित्ता मज्झे अट्ठसु जोयणसएसु एत्थ णं वाणमंतराणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा भोमेजा णगरावाससयसहस्सा पण्णत्ता। ते णं भोमेजा णगरा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा एवं जहा भवणवासीणं तहेव णेयव्वा, णवरं पडागमालाउला सुरम्मा पासाईया दरिसणिजा अभिरूवा पडिरूवा। ___ कठिन शब्दार्थ - पुढवीकाइयावासा - पृथ्वीकाय के आवास स्थान, रयणामयस्स कंडस्स - रत्नकांड, भोमेजा - भूमि में रहे हुए, पडागमालाउला - पताकाओं की माला से व्याप्त, सुरम्मा - सुरम्य।
भावार्थ - हे भगवन्! पृथ्वीकाय के कितने आवास-स्थान कहे गये हैं? हे गौतम! पृथ्वीकाय के असंख्याता आवास कहे गये हैं। इसी प्रकार अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और तिर्यंच पञ्चेन्द्रिय के असंख्याता स्थान कहे गये हैं। सम्मूछिम मनुष्य के असंख्याता स्थान और गर्भज मनुष्य के संख्याता स्थान कहे गये हैं।
___ हे भगवन्! वाणव्यन्तर देवों के कितने आवास कहे गये हैं? हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी का रत्नकाण्ड, जो कि रत्नों का बना हुआ है, वह एक हजार योजन का मोटा है? उसमें से ऊपरं एक सौ योजन छोड़ कर और नीचे एक सौ योजन छोड़ कर बीच में आठ सौ योजन का मध्य भाग है इस मध्य भाग में वाणव्यन्तर देवों के असंख्याता योजन तिर्छ भूमि में रहे हुए लाखों नगरावास स्थान कहे गये हैं। वे भूमि में रहे हुए नगर बाहर गोल और भीतर
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