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असुरकुमारों का वर्णन
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जो ऊपर और नीचे समान विस्तार वाली हो, वह खाई कहलाती है और ऊपर चौड़ी. तथा नीचे संकड़ी हो उसे परिखा करते हैं। जिस तोप को एक वक्त चलाने पर एक सौ आदमी एक साथ मारे जाते हों उसे शतघ्नी कहते हैं। मूल में उन भवनों के लिये 'सण्हा' 'लण्हा' आदि सोलह विशेषण दिये हैं। जो वस्तु शाश्वत होती है, उसके लिये ये सोलह विशेषण दिये जाते हैं और अशाश्वत वस्तु के लिये 'पासाईया' आदि चार विशेषण दिये जाते हैं। इन सोलह विशेषणों का सामान्य अर्थ भावार्थ में दे दिया गया है। विशेष शब्दार्थ इस प्रकार है -
१. अच्छ - स्वच्छ = आकाश एवं स्फटिक के समान, ये बिलकुल सब तरफ से स्वच्छ अर्थात् निर्मल हैं।
२. सण्हा - श्लक्ष्ण = सूक्ष्म स्कन्ध से बने हुए होने के कारण चिकने वस्त्र के समान हैं।
३. लण्हा - लक्ष्ण = इस्तिरी किये गये वस्त्र जिस प्रकार चिकने रहते हैं अथवा घोटे हुए वस्त्र जैसे चिकने होते हैं।
४. घट्ठा - घृष्ट = पाषाण की पुतली जिस प्रकार खुरशाण से घिरसकर एक सी और चिकनी कर दी जाती है, वैसे वे भवन हैं।
५. मट्ठा - मृष्ट = कोमल खुरशाण से घिसे हुए चिकने । ६. नीरया - नीरज = रज अर्थात् धूलि रहित । ७. णिम्मला - निर्मल = मल रहित । ८. वितिमिरा - वितिमिर - तिमिर अर्थात् अन्धकार से रहित । . ९. विसुद्धा - विशुद्ध = निष्कलंक । १०. सप्पभा.- सप्रभा = प्रकाश सम्पन्न अथवा स्वयं आभा-चमक से सम्पन्न ।
११. सम्मिरिया (सस्सिरिया) - समरिचि = मरिचि अर्थात् किरणों से युक्त तथा शोभा युक्त ।
१२. सउज्जोया - सउद्योत = उद्योत अर्थात् प्रकाश सहित तथा समीपस्थ वस्तु को प्रकाशित करने वाले । . १३. पासांईया - प्रासादीय = मन को प्रसन्न करने वाले ।
१४. दरिसणिज्जा - दर्शनीय = देखने योग्य तथा देखते हुए आँखों को थकान मालूम नहीं होती है ऐसे। . १५. अभिरूवा - अभिरूप --जितनी वक्त देखो उतनी वक्त नया नया रूप दिखाई देता है।
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