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वैमानिक देवों का वर्णन
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कल्पोपपन्न और कल्पातीत। यहाँ कल्प शब्द का अर्थ है मर्यादा अर्थात् जहाँ छोटे, बड़े, स्वामी, सेवक की मर्यादा है उन्हें कल्पोपपन्न कहते हैं। सौधर्म से लेकर अच्युत तक बारह देवलोक कल्पोपपन्न कहलाते हैं।
दस प्रकार के भवनवासी, आठ प्रकार के व्यन्तर, पांच प्रकार के ज्योतिषी और बारह प्रकार के वैमानिक देवों में प्रत्येक के दस दस भेद होते हैं। अर्थात् प्रत्येक देव योनि दस विभागों में विभक्त है। . १. इन्द्र - सामानिक आदि सभी प्रकार के देवों का स्वामी इन्द्र कहलाता है। .
२. सामानिक - आय आदि में जो इन्द्र के बराबर होते हैं उन्हें सामानिक कहते हैं। इनमें केवल इन्द्रत्व नहीं होता । बाकी सभी बातों में इन्द्र के समान होते हैं। बल्कि इन्द्र के लिये माता-पिता अमात्य एवं गुरु आदि की तरह पूज्य होते हैं।
३. त्रायस्त्रिंश - जो देव मन्त्री और पुरोहित का काम करते हैं वे त्रायस्त्रिंश कहलाते हैं। इनको दोगुंदक देव भी कहते हैं। ____ . ४. पारिषद्य - जो देव इन्द्र के मित्र सरीखे होते हैं वे पारिषद्य कहलाते हैं।
५. आत्मरक्षक - जो देव शस्त्र लेकर इन्द्र के. पीछे खड़े रहते हैं वे आत्मरक्षक कहलाते हैं। यद्यपि इन्द्र को किसी प्रकार की तकलीफ या अनिष्ट होने की सम्भावना नहीं है तथापि आत्म रक्षक देव अपना कर्त्तव्य पालन करने के लिये हर समय हाथ में शस्त्र लेकर खड़े रहते हैं।
६. लोकपाल - सीमा (सरहद) की रक्षा करने वाले देव लोकपाल कहलाते हैं। ७. अनीक - जो देव सैनिक अथवा सेना नायक का काम करते हैं वे अनीक कहलाते हैं।
८. प्रकीर्णक - जो देव नगर निवासी अथवा साधारण जनता की तरह होते हैं वे प्रकीर्णक कहलाते हैं।
९. आभियोगिक - जो देव दास के समान होते हैं वे आभियोगिक (सेवक) कहलाते हैं।
१०. किल्विषिक - अन्त्यज (चाण्डाल) के समान जो देव होते हैं वे किल्विषिक कहलाते हैं।
(तत्त्वार्थाधिगमभाष्य अध्याय ४ सूत्र ४) प्रश्न - हे भगवन् ! वैमानिक देवों में कितने प्रस्तट हैं?
उत्तर - हे गौतम! ६२ प्रस्तट हैं। यथा - सौधर्म और ईशान अर्थात् पहला और दूसरा देवलोक समान आकार में आये हुए हैं। इन दोनों के तेरह प्रस्तट हैं। इसी प्रकार समान आकार में आये हुए सनत्कुमार और माहेन्द्र नामक तीसरे और चौथे देवलोक में बारह प्रस्तट
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