Book Title: Samvayang Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 372
________________ राशि का वर्णन ३५५ सद्भाव सिद्ध करने वाले तथा अनन्त अहेतु प्रत्येक द्रव्य का परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा अभाव बताने वाले, अनन्त कारण, उपादान, निमित्त आदि, जैसे घड़े के लिये मिट्टी, कुम्हार आदि, अनन्त अकारण जैसे घड़े के लिये तन्तु-डोरा, अनन्त जीव एकेन्द्रिय आदि, अनन्त अजीव-द्विअणुक यावत् अनन्त अणु परिमाण स्कंध, अनन्त भवसिद्धिक-जिनमें मोक्ष जाने की योग्यता है उसे भवसिद्धिक कहते हैं। अनन्त अभवसिद्धिक, अनन्त सिद्ध- जिन्होंने आठ कर्मों को खपा कर मोक्ष प्राप्त कर लिया है। अनन्त असिद्ध-संसारी जीव । इन सब बातों का वर्णन द्वादशाङ्ग गणिपिटक में दिया गया है। राशि का वर्णन दुवे रासी पण्णत्ता, तंजहा-जीवरासी य अजीवरासी य। अजीवरासी दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-रूवी अजीवरासी, अरूवी अजीवरासी य। ___ भावार्थ - दो प्रकार की राशि कही गई है, जैसे कि - जीवराशि और अजीव राशि । अजीव राशि दो.प्रकार की कही गई है। जैसे कि - रूपी अजीव राशि और अरूपी अजीव राशि। . विवेचन - समूह को राशि कहते हैं। राशि के दो भेद हैं - जीव राशि और अजीव राशि। यहाँ पर जीव राशि का विवरण नहीं दिया है। केवल 'जाव' शब्द का प्रयोग करके यह सूचित कर दिया है कि प्रज्ञापना सूत्र के पहले प्रज्ञापना नामक पद के अनुसार इसका निरूपण समझ लेना चाहिए। दोनों स्थलों में अन्तर मात्र एक शब्द का है। प्रज्ञापना सूत्र में जहाँ 'प्रज्ञापना' शब्द का प्रयोग है, वहाँ इस स्थान परं 'राशि' शब्द का प्रयोग करना चाहिए। शेष कथन दोनों जगह समान हैं। ... . रूपी अजीव अर्थात् पुद्गल राशि चार प्रकार की है - स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु। अनन्त परमाणुओं के सम्पूर्ण पिण्ड को स्कन्ध कहते हैं। स्कन्ध के उसमें मिले हुए भाग को 'देश' कहते हैं और स्कन्ध के साथ जुड़े अविभागी अंश को 'प्रदेश' कहते हैं। पुद्गल के सबसे छोटे अविभागी अंश को जो पृथक् है, उसे 'परमाणु' कहते हैं। पुनः यह पुद्गल वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान के भेद से पांच प्रकार का है। पुन: संस्थान भी पुद्गलपरमाणुओं के संयोग से अनेक प्रकार का होता है। यह पुद्गल शब्द, सूक्ष्म, स्थूल भेद, तम (अन्धकार), छाया, उद्योत (चन्द्र प्रकाश) और आतप (सूर्य प्रकाश) आदि के भेद से भी अनेक प्रकार का है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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