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समवायांग सूत्र
ईशान देवलोक में २८ लाख विमान हैं। सनत्कुमार में १२ लाख विमान हैं। माहेन्द्र में ८ लाख विमान हैं। ब्रह्मलोक में ४ लाख विमान हैं। लान्तक में ५० हजार, महाशुक्र में ४० हजार, सहस्त्रार में छह हजार विमान हैं। आणत और प्राणत इन दोनों में ४०० विमान हैं और आरण और अच्युत इन दोनों में ३०० विमान हैं। इस प्रकार आणत, प्राणत, आरण और अच्युत, इन चारों देवलोकों में ७०० विमान हैं। नव ग्रैवेयक की नीचे की त्रिक में १११ विमान हैं। मध्यम त्रिक में १०७ विमान हैं और ऊपर की त्रिक में १०० विमान हैं। अनुत्तर . विमान पांच हैं।
दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठी और सातवीं नरक में नरकावासों की संख्या आदि ऊपर बताई हुई गाथाओं के अनुसार कह देनी चाहिए ।
विवेचन - प्रश्न - हे भगवन्! रत्नप्रभा पृथ्वी के कितने काण्ड हैं?
उत्तर - हे गौतम! रत्नप्रभा पृथ्वी के तीन काण्ड हैं यथा - रत्नकाण्ड, अप्पबहुल (जलबहुल) काण्ड, पङ्क बहुल काण्ड । रत्न काण्ड में नरकावास की जगह को छोड़ कर शेष जगह में अनेक प्रकार के इन्द्रनीलादि रत्न होते हैं। जिनकी प्रभा-कान्ति पड़ती रहती है। इस कारण से पहली पृथ्वी का नाम 'रत्नप्रभा' पड़ा है। इसी प्रकार शेष पृथ्वियों के नामों की भी उपपत्ति समझ लेना चाहिए। सातवीं पृथ्वी में घोर अन्धकार है, इसलिये उसका नाम तमस्तमः या महातमःप्रभा है।
- प्रश्न - हे भगवान्! प्रस्तट किसे कहते हैं? और वे कितने हैं ? तथा अन्तर किसे कहते हैं? और वे कितने हैं?
उत्तर - नैरयिक जीवों के रहने के स्थान को प्रस्तट (प्रस्तर-पाथड़ा) कहते हैं। नरक के कुल प्रस्तट ४९ हैं यथा - पहली के १३, दूसरी के ११, तीसरी के ९, चौथी के ७, पांचवी के ५, छठी के ३ और सातवीं का १ प्रस्तट है। कुल ४९ प्रस्तट हैं।
एक प्रस्तट से दूसरे प्रस्तट के बीच की जगह को अन्तर कहते हैं। कुल अन्तर ४८ हैं। प्रस्तट में नैरयिक जीव रहते हैं। पहली नरक के तेरह प्रस्तट होने पर बारह अन्तर रह जाते हैं। इन बारह अन्तरों में से ऊपर का पहला और दूसरा अन्तर तो खाली है। तीसरे अन्तर में
असुरकुमार देवों के भवन हैं। यावत् बारहवें अन्तर में दसवें भवनपति स्तनितकुमार के भवन हैं। भवनपति देव मेरु पर्वत से दक्षिण में और उत्तर में रहते हैं। दोनों तरफ के आवासों की संख्या बताने के लिये टीकाकार ने दो गाथाएँ दी हैं यथा -
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