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बारह अंग सूत्र
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समुदाय में मुखिया साध्वियाँ, चतुर्विध संघ का परिमाण अर्थात् साधु साध्वी श्रावक श्राविका की गिनती, केवलज्ञानी, मनःपर्यय ज्ञानी, अवधिज्ञानी, सम्यक्त्वी और श्रुतज्ञानियों की संख्या, वादियों की संख्या, अनुत्तर गति में उत्पन्न होने वाले जीवों की संख्या, सिद्ध होने वाले जीवों की संख्या, पादपोपगमन और जो उत्तम मुनिवर जिस स्थान पर जितने भक्त का छेदन कर अज्ञान रूपी अन्धकार से मुक्त होकर अर्थात् केवल ज्ञान. केवल दर्शन उपार्जन कर अष्ट कर्मों का क्षय करके प्रधान सिद्धि गति को प्राप्त हुए हैं उन सब का वर्णन और इसी प्रकार के अन्य भाव मूल प्रथमानुयोग में कहे गये हैं। इस प्रकार मूल प्रथमानुयोग का कथन किया जाता है, प्रज्ञापना की जाती है, प्ररूपणा की जाती है। यह मूल प्रथमानुयोग का कथन हुआ ।
'विवेचन - सूत्र के अनुकूल अर्थ करना अथवा सूत्र का कथन करने के बाद जो उसके साथ जोड़ा जाय उसको 'अनुयोग' कहते हैं। उसके दो भेद हैं मूल प्रथमानुयोग और गण्डिकानुयोग (कण्डिकानुयोग)।
प्रश्न - हे भगवन्! मूल प्रथमानुयोग किसे कहते हैं।
उत्तर - धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले धर्म के "मूल" तीर्थङ्कर भगवन्त कहे जाते हैं। उन्होंने जिस भव में सर्व प्रथम समकित की प्राप्ति की उस प्रथम भव से लेकर यावत् मोक्ष प्राप्ति तक का चरित्र जिसमें हो उसे मूल प्रथमानुयोग कहते हैं। उनका संक्षिप्त वर्णन मूल में किया गया है।
उसका साधारण एवं संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है
१. पूर्वभव - तीर्थङ्कर भगवन्तों ने जिस भव में सर्व प्रथम सम्यक्त्व रत्न प्राप्त किया उस प्रथम भव से लेकर जिस भव में तीर्थङ्कर गोत्र बांधा वहाँ तक के वर्णन को पूर्व भव कहते हैं।
२. देवलोक गमन - तीर्थङ्कर गोत्र जिस भव में बांधा वहाँ से काल करके जिस देवलोक में, जिस विमान में और जिस रूप में उत्पन्न हुए वह कहा जाता है। यदि श्रेणिक जैसे कोई जीव तीर्थङ्कर गोत्र बान्धने से पहले नरकायु बन्ध जाने से नरक में उत्पन्न हुए हों तो वह नरक, वहाँ का नरकावास आदि बताया जाता है।
३. आयु- देवलोक या नरक में जितना आयुष्य बान्धा उसका कथन ।
४. च्यवन - वहाँ देवलोक से जब चवे या नरक से निकले वहाँ से जिस नगर आदि में जिस राजा की महारानी की कुक्षि में आवे उन सब का कथन ।
५. जन्म - जन्म के मास, पक्ष, तिथि, नक्षत्र आदि का कथन ।
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