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समवायांग सूत्र
ज्ञातासूत्र के इस पाठ से सुबुद्धि प्रधान का जैन शास्त्रों का अच्छा जानकार होना सिद्ध "होता है। यहाँ शास्त्रकार ने सुबुद्धि प्रधान के लिये ठीक उसी प्रकार की भाषा का प्रयोग किया है जैसी भाषा का प्रयोग ऐसे प्रकरणों में साधु के लिये किया जाता है।
औपपातिक सूत्र में श्रावक के लिये "धम्मक्खाई" (धर्म का प्रतिपादन करने वाला) शब्द का प्रयोग किया गया है। यदि श्रावक को शास्त्र पढने का अधिकार न हो तो वह धर्म का प्रतिपादन कैसे कर सकता है?
श्रावक प्रतिक्रमण में श्रावक "आगमे तिविहे" का पाठ बोलता है इससे भी यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि - श्रावक श्राविका सुत्तागमे (सूत्र रूप मूल आगम), अंत्थागमे (अर्थरूप
आगम) और तदुभयागमे (सूत्र और अर्थरूप दोनों आगम) तीनों प्रकार के आगम पढ़ .: सकता है इसीलिये उसमें लगे हुये अतिचार के लिये "मिच्छामि दुक्कडं' देता है।
सूत्रों के अभ्यास ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम पर निर्भर है और ऐसा कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता है कि - श्रावकों का ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम साधुओं की अपेक्षा नियम पूर्वक मन्द ही होता है। शास्त्रकारों ने तो अभव्यों के भी पूर्त का अभ्यास होना माना है फिर श्रावक श्राविका का शास्त्र पढ़ना क्यों कर निषिद्ध हो सकता है। श्रावक श्राविका को सूत्र नहीं पढ़ना चाहिए, ऐसा कहीं भी जैन शास्त्रों में उल्लेख नहीं मिलता है। अतः उपरोक्त शास्त्र प्रमाणों से श्रावक-श्राविका का शास्त्र पढ़ना स्पष्ट सिद्ध होता है और . वह आगम सम्मत है।
से किं तं अंतगडदसाओ? अंतगडदसासु णं अंतगडाणं णगराइं उज्जाणाइं चेइयाई, वणाई, रायाणो, अम्मापियरो, समोसरणा, धम्मायरिया, धम्मकहा, इहलोइय परलोइय इड्डिविसेसा, भोगपरिच्चाया, पव्वज्जाओ, सुयपरिग्गहा, तवोवहाणाई, पडिमाओ बहुविहाओ, खमा, अजवं, महवं च सोयं च सच्चसहियं सत्तरसविहो य संजमो, उत्तमं च बंभं, अकिंचणया, तवो, चियाओ, समिइगुत्तिओ चेव तह अप्पमायजोगा, सज्झायज्झाणेण य उत्तमाणं दोण्हं पि लक्खणाइं पत्ताण य संजमुत्तमं जियपरीसहाणं चउव्विह कम्मक्खयम्मि जह केवलस्स लंभो, परियाओ, जत्तिओ य जह पालिओ मुणिहिं पाओवगओ य जो जहिं जत्तियाणि भत्ताणि छेयइत्ता अंतगडो मुणिवरो तमरयोघविप्पमुक्को मोक्खसुहमणुत्तरं च पत्ता। एए अण्णे य एवमाइयत्था वित्थरेणं परूवेइ। अंतगडदसासु णं परित्ता वायणा, संखेजा अणुओगदारा जाव संखेजाओ
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