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समवायांग सूत्र
"त्रिषु कालेषु या मतिः-बुद्धिः, यदुत दास्यामि इति परितोषः दीयमाने परितोषः दत्ते च परितोष इति, सा त्रैकालिमतिः तया च यानि विशुद्धानि तानि भक्तपानानि"
अर्थ - मैं जिस दिन पंच महाव्रत धारी साधु महात्माओं को शुद्ध आहार पानी बहराऊंगा वह दिन मेरा धन्य होगा ऐसी भावना रखना, साधु साध्वी का योग मिलने पर निर्दोष दान देते हुए मन में हर्षित होना और दान देने के बाद भी हर्षित होना कि - आज का दिन मेरे लिये धन्य है जो आज मेरी भावना सफल हुई । इस प्रकार भूत, भविष्यत्, वर्तमान तीनों काल में दान के विषय में हर्षित होना - त्रैकालिक बुद्धि की विशुद्धता कहलाती है। यही बात द्रव्य शुद्धि के विषय में भी जाननी चाहिए। मूल पाठ में दिया गया है कि - "पयोगसुद्धाइं" जिसका अर्थ टीकाकार ने लिखा है -
"प्रयोगेषु शुद्धानि दायकदानव्यापारापेक्षया सकलाशंसादिदोष रहितानि ग्राहक ग्रहण व्यापारापेक्षया च उद्गमादिदोषवर्जितानि"
अर्थ - दाता गृहीता और उद्गमादि दोषों से रहित । इसी बात को सुखविपाक सूत्र के मूल पाठ में इस तरह से कहा है - "दव्वसुद्धेणं दायगसुद्धेणं पडिगाहगसुद्धेणं तिविहेणं तिकरण सुद्धेणं"
अर्थ - द्रव्यशुद्ध अर्थात् उद्गम के १६, उत्पादना के १६ और, एषणा के दस इन ४२ दोषों से रहित प्रासुक एषणीय आहारादि का लेना, 'द्रव्यशुद्ध' कहलाता है। निःस्वार्थ भाव से देने वाला दाता 'दायगशुद्ध' कहलाता है। उसी प्रकार मोक्ष की साधना करने वाला शरीर के निर्वाह के लिये निःस्वार्थ भाव से लेने वाला प्रतिग्राहक (ग्रहण करने वाला) 'प्रतिग्रहीता शुद्ध' कहलाता है। इन तीन की शुद्धता सहित मन वचन काया की शुद्ध प्रवृत्ति त्रिविध त्रिकरण शुद्ध कहलाता है। इसी बात को दशवैकालिक सूत्र के पांचवें अध्ययन में भी इस प्रकार कहा है -
दुल्लहाओ मुहादाई, मुहाजीवी वि दुल्लहा । .
मुहादाई मुहाजीवी, दो वि गच्छंति सुग्गइं ॥ १०० ॥ अर्थात् - नि:स्वार्थ भाव से देने वाले को मुधादाई और निःस्वार्थ भाव से लेकर शुद्ध संयम पालन करने वाले को मुधाजीवी कहते हैं। ये दोनों मिलना दुर्लभ हैं जैसा कि कहा है
मुधादाई मुधाजीवी, दुर्लभ इण संसार । वीर कहे सुन गोयमा, दोनों होवे भव पार ॥ प्रश्न - सुपात्र दान किसे कहते हैं?
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