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बारह अंग सूत्र
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सीसा और तैल शरीर पर डालना, कुम्भी में डाल कर पचाना, शीतकाल में शरीर पर ठंडा जल छिड़क कर कंपाना, स्थिरबन्धन - गाढा बन्धन बांधना, भाला आदि शस्त्र से भेदना, चमड़ी उधेड़ देना, भय उपजाना, वस्त्र को तैल में डूबा कर शरीर पर लपेटना और फिर उसमें अग्नि जलाना आदि, दारुण - भयंकर, अनुपमेय - उपमा रहित दुःखों को, दुःखपरम्परा से बंधे हुए वे नरक गति और तिर्यञ्च गति के जीव भोगते हैं और वे पापकर्म की परम्परा (बेलड़ी) से छुटकारा नहीं पा सकते हैं क्योंकि किये हुए पाप कर्मों के फल को भोगे बिना छुटकारा हो नहीं सकता। शिष्य प्रश्न करता है कि हे भगवन्! तो फिर उन कर्मों से छुटकारा कैसे हो सकता है? गुरु महाराज उत्तर देते हैं कि अनशनादि बारह प्रकार का तप करने से तथा अत्यन्त धीरता से अर्थात् क्षमा-सहनशीलता से उन कर्मों का शोधन हो सकता है अर्थात् उन कर्मों से छुटकारा हो सकता है। इसके सिवाय कर्मों से छुटकारा पाने का दूसरा कोई उपाय नहीं है। इत्यादि बातों का वर्णन दुःखविपाक सूत्र में किया गया है।
- इसके बाद सुखविपाक सूत्र में जो विषय बतलाया गया है उसका वर्णन किया जाता है - सुखविपाक सूत्र में शील-ब्रह्मचर्य, संयम, नियम - अभिग्रह आदि, मूलगुण और उत्तरगुण, उपधान आदि तप, इत्यादि गुणों से युक्त श्रेष्ठ साधु महात्माओं को हितकारी सुखकारी कल्याणकारी उत्कृष्ट परिणाम वाले दाता लोग अति आदर और भक्तिपूर्वक अनुकम्पा के परिणाम से तथा त्रैकालिक बुद्धि की विशुद्धता से युक्त तथा उद्गम उत्पादना आदि दोषों से रहित शुद्ध आहार पानी बहरा कर बोधिलाभ करते हैं यानी सम्यक्त्व की प्राप्ति करते हैं और संसार सागर को परित्त करते हैं यानी अनन्त भव भ्रमण को घटा कर संसार परिभ्रमण को परिमित कर डालते हैं। वह संसार सागर कैसा है सो बतलाया जाता है - नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति, इन चार गतियों में बारम्बार परिभ्रमण करने रूप महान् आवर्त वाले तथा अरति, भय, विषाद, शोक और मिथ्यात्व रूपी पर्वतों से व्याप्त अज्ञान रूपी अन्धकार से युक्त और विषयवासना रूपी कीचड़ से परिपूर्ण होने से कठिनता से तैरने योग्य, जरा-बुढ़ापा
और मरण-मृत्यु से क्षुब्ध चक्रवाल युक्त क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन ये चार-चार भेद करने से कषाय के १६ भेद होते हैं। इन सोलह कषाय रूपी प्रचण्ड हिंसक जलजन्तुओं से युक्त इस अनादि संसार सागर को परित्त करते हैं और फिर वे जिस प्रकार देवलोकों में सागरोपम आदि की आयु बांधते हैं और वहां देवलोकों में अनुपम सुख का अनुभव करते हैं और कालान्तर में उन देवलोकों से चव कर यहाँ मनुष्य लोक में आकर उत्पन्न होते हैं। उन्हें यहां पर शुभ और दीर्घ आयु,
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