________________
'समवायांग सूत्र
रोकना चाहिए २१. आत्म दोषोपसंहार साधु को अपने दोषों की शुद्धि कर उनका निरोध करना चाहिए २२. सर्वकाम विरक्तता - साधु को पांचों इन्द्रियों के अनुकूल विषयों से विमुख रहना चाहिए २३. प्रत्याख्यान - मूलगुण विषयक प्रत्याख्यान करना चाहिए और २४. उत्तर गुणविषयक प्रत्याख्यान भी करना चाहिए । २५. व्युत्सर्ग- द्रव्य और भाव दोनों प्रकार का व्युत्सर्ग त्याग करना चाहिए २६. अप्रमाद साधु को प्रमाद का त्याग करना चाहिए २७. साधु को प्रतिक्षण शास्त्रोक्त समाचारी के अनुष्ठान में लगे रहना चाहिए । २८. ध्यानसंवरयोग- साधु को शुभ ध्यान रूप संवर क्रिया का आश्रय लेना चाहिए २९. मारणान्तिकोदय - साधु को मारणान्तिक वेदना का उदय होने पर भी घबराना न चाहिए ३०. संपरिज्ञात - साधु को ज्ञपरिज्ञा से विषय संग हेय जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञां द्वारा उसका त्याग करना चाहिए ३१. प्रायश्चित्त करण साधु को दोष लगने पर प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध होना चाहिए ३२. मारणान्तिक आराधना साधु को अन्तिम समय में संलेखना कर पण्डित मरण की आराधना करनी चाहिए। ये बत्तीस बातें प्रशस्त योग संग्रह में कारण होने से आलोचना आदि क्रियाओं को भी प्रशस्त योग संग्रह कहा गया है ॥ ५ ॥
१५८
--
-
Jain Education International
-
-
बत्तीस देवेन्द्र कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं १. चमरेन्द्र २. बलीन्द्र ३. धरणेन्द्र ४. भूतानन्द ५. वेणुदेव ६. वेणुदाल ७. हरिकान्त ८. हरिसिंह ९. अग्नि सिंह १०. अग्रिमाणव ११. पूर्ण १२. वशिष्ठ १३. जलकान्त १४. जलप्रभ १५. अमितगति १६. अमितवाहन १७. वेलम्ब १८. प्रभञ्जन १९. घोष २०. महाघोष । ये बीस भवनपतियों के इन्द्र हैं । २१. चन्द्र २२. सूर्य, ये दो ज्योतिषी देवों के इन्द्र हैं । २३. शक्रेन्द्र २४. ईशानेन्द्र २५. सनत्कुमारेन्द्र २६. माहेन्द्र २७. ब्रह्मलोकेन्द्र २८ लान्तकेन्द्र २९. महाशुक्रेन्द्र ३०. सहस्रारेन्द्र ३१. प्राणतेन्द्र ३२. अच्युतेन्द्र । सतरहवें तीर्थङ्कर श्री कुन्थुनाथ भगवान् के ३२३२ केवलज्ञानी थे ।
सौधर्म नामक पहले देवलोक में बत्तीस लाख विमान कहे गये हैं। रेवती नक्षत्र बत्तीस तारों वाला कहा गया है। बत्तीस प्रकार का नाटक कहा गया है। इस रत्नप्रभा नामक पहली नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति बत्तीस पल्योपम की कही गई है। तमस्तमा नामक सातवीं नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति बत्तीस सागरोपम की कही गई है। असुरकुमार देवों में कितनेक देवों की स्थिति बत्तीस पल्योपम की कही गई है। सौधर्म और ईशान नामक पहले और दूसरे देवलोक में कितनेक देवों की स्थिति बत्तीस पल्योपम की कही गई है। जो देव विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित इन चार अनुत्तर विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं। उन देवों में से कितनेक देवों की स्थिति बत्तीस सागरोपम की कही गई है। वे देव बत्तीस `पखवाड़ों से आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास लेते हैं और बाह्य श्वासोच्छ्वास लेते हैं। उन देवों को
-
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org