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समवायांग सू
उपद्रव नहीं होता है । २९. स्वचक्र का भय यानी स्वराज्य की सेना से उपद्रव नहीं होता है। परचक्र का भय - दूसरे राजा की सेना का उपद्रव नहीं होता है । ३१. अतिवृष्टि -अधिक वर्षा नहीं होती है। अनावृष्टि - वर्षा का अभाव नहीं होता है ३३. दुर्भिक्ष - दुष्काल नहीं होता है । ३४. पहले से उत्पन्न हुए उत्पात और व्याधियाँ शीघ्र ही शान्त हो जाती हैं। इन चौतीस अतिशयों में से दो से पांच तक के चार अतिशय तीर्थङ्कर भगवान् के जन्म से ही होते हैं । इक्कीस से चौतीस तक तथा भामण्डल ये पन्द्रह अतिशय घाती कर्मों के क्षय होने पर प्रकट होते हैं। शेष पन्द्रह अतिशय देवकृत होते हैं। इस जम्बूद्वीप में चौतीस चक्रवर्ती विजय कहे गये हैं. यथा महाविदेह में बत्तीस विजय हैं और भरत तथा ऐरवत । ये चौतीस विजय क्षेत्र हैं। इन चौतीस क्षेत्रों में चक्रवर्ती उत्पन्न होते हैं, इसलिए ये चक्रवर्ती विजय कहलाते हैं । जम्बूद्वीप में चौतीस दीर्घ वैताढ्य पर्वत कहे गये हैं। जम्बूद्वीप में एक साथ उत्कृष्ट चौतीस . तीर्थङ्कर होते हैं। असुरों के राजा असुरों के इन्द्र चमरेन्द्र के चौत्तीस लाख भवन कहे गये हैं। पहली में तीस लाख, पांचवीं में तीन लाख, छठी में पांच कम एक लाख और सातवीं में पांच नरकावास हैं, इस तरह चारों नरकों के मिला कर चौतीस लाख नरकावास कहे गये हैं ।॥ ३४ ॥
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विवेचन - यहाँ तीर्थङ्कर भगवन्तों के ३४ अतिशय बताये गये हैं। मूल में 'बुद्धाइसेसा' शब्द दिया है। वैसे 'बुद्ध' शब्द का अर्थ है ज्ञानी, किन्तु यहाँ पर 'बुद्ध' शब्द से तीर्थङ्कर अर्थ लिया गया है । 'अइसेस' का अर्थ है - 'अतिशेष' अर्थात् अतिशय । दूसरे जीवों की अपेक्षा जिस जीव में जिस गुण की विशेषता पाई जाती हो, उसको अतिशय कहते हैं।
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कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य द्वारा रचित स्याद्वादमञ्जरी ग्रन्थ में बतलाया गया है कि ये ३४ अतिशय तो गिनकर बतला दिये गये हैं किन्तु तीर्थङ्कर भगवन्तों के अनन्त अतिशय होते हैं। जिस प्रकार तीर्थङ्करों के १००८ बाहरी लक्षण बतलाये गये हैं जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र के २२ वें अध्ययन में कहा है -
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'अट्टसहस्सलक्खणधरो, गोयमो कालगच्छवी"
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जिस प्रकार शरीर के बाहरी १००८ लक्षण होते हैं उसी प्रकार आंतरिक अतिशय भी अनन्त होते हैं । ३४ अतिशयों में से दूसरे से लेकर पांचवें तक चार अतिशय जन्म से होते हैं। पांचवें अतिशय का विवेचन करते हुए पूज्य आचार्य श्री आत्माराम जी म. सा. के सुशिष्य पण्डित रत्न श्री ज्ञानमुनि जी ने 'प्रश्नों के उत्तर' नामक पुस्तक के दूसरे भाग में लिखा है। कि - तीर्थङ्कर भगवान् के सर्व अङ्गोपाङ्ग सुन्दर और शोभनिक तो होते ही हैं इसी प्रकार वे छद्मस्थों की दृष्टि में साधु के वेश सहित दिखाई देते हैं किन्तु वस्त्र रहित नग्न नहीं दिखाई
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