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समवायांग सूत्र
विवेचन - दो चन्द्रमाओं के ५६ नक्षत्र होते हैं। उन सब नक्षत्रों का सीमा विष्कंभ अर्थात् दिन रात में चन्द्र द्वारा भोगने योग्य क्षेत्र को सड़सठ भागों से विभाजित करने पर सम अंश वाला क्षेत्र आ जाता है। अर्थात् उसके ऊपर कला आदि नहीं आती है। इसलिये इस को सम अंश वाला कहा है।
अडसठवां समवाय धायइसंडे णं दीवे अडसद्धिं चक्कवट्टि विजया अडसद्धिं रायहाणीओ पण्णत्ताओ। उक्कोसपए अडसटुिं अरहंता समुप्पजिंसु वा समुप्पजति वा समुप्पजिस्संति वा एवं चक्कवट्टी, बलदेवा, वासुदेवा। पुक्खरवर दीवड्डे णं अडसढेि विजया एवं चेव जाव वासुदेवा। विमलस्स णं अरहओ अडसद्धिं समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समण संपया होत्था ॥ ६८ ॥
कठिन शब्दार्थ - चक्कवट्टि विजया - चक्रवर्ती विजय, समुप्पजिंसु - उत्पन्न हुए थे, समुप्पजंति - उत्पन्न होते हैं और समुप्पज्जिस्संति - उत्पन्न होंगे, पुक्खरवरदीवड्डे - पुष्करवरद्वीपार्द्ध-अर्द्ध-पुष्करवरद्वीप में, समणसंपया - श्रमण संपदा। ,
भावार्थ - धातकीखण्ड द्वीप में अडसठ चक्रवर्ती विजय और अडसठ राजधानियाँ कही गई हैं। धातकीखण्ड द्वीप में उत्कृष्ट अडसठ तीर्थङ्कर उत्पन्न हुए थे, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे। इसी प्रकार ६८ चक्रवर्ती, ६८ बलदेव और ६८ वासुदेव उत्पन्न हुए थे, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे। अर्द्ध पुष्करवर द्वीप में भी इसी तरह अडसठ चक्रवर्ती विजय और अड़सठ राजधानियाँ कही गई हैं तथा उत्कृष्ट ६८ तीर्थङ्कर, ६८ चक्रवर्ती, ६८ बलदेव और ६८ वासुदेव उत्पन्न हुए थे उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे। तेरहवें तीर्थङ्कर श्री विमलनाथ स्वामी के उत्कृष्ट अडसठ हजार श्रमण (साधु) संपदा थी।। ६८ ॥
विवेचन - जम्बूद्वीप के मध्य में मेरु पर्वत अवस्थित है। इस कारण से महाविदेह क्षेत्र दो भागों में बंट जाता है। यथा - पूर्वी महाविदेह और पश्चिमी महाविदेह । फिर पूर्व में सीता नदी के बहने से और पश्चिम में सीतोदा नदी के बहने से पूर्वी महाविदेह के दो भाग हो जाते हैं और इसी तरह पश्चिमी महाविदेह के भी दो भाग हो जाते हैं। साधारण रूप से उक्त चारों क्षेत्र में एक एक तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव उत्पन्न होते हैं। अतः एक समय में चार ही तीर्थङ्कर, चार ही चक्रवर्ती, चार ही बलदेव और चार ही वासुदेव
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